Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi). Track: 163.

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अमृत वाणी (भाग-४)

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ट्रेक-१६३ (audio) (View topics)

मुमुक्षुः- कभी तो ऐसा लगता है मानो शुष्कता आ जाती है, हृदय भीगा हुआ नहीं रहकरके। उसमें तत्त्वकी समझका क्या दोष होगा?

समाधानः- शुष्कता तो अपने कारणसे (होती है)। बाकी अपना हृदय भीगा हुआ रहे, अपने स्वभावकी महिमा आये, अपने स्वभावमें ही सर्वस्व है। यह सब बाहरका है वह तो तुच्छ है। स्वभावकी महिमा तो... महिमासे भरा स्वभाव है। ऐसी महिमा आये तो ऐसा नहीं होता, शुष्कता आये ही नहीं, उसका हृदय भीगा हुआ रहे। अपना स्वभाव, वही अदभुत और आदरणीय है। शुष्कताको पलट देना कि महिमावंत मेरा स्वभाव है। ये बाह्य वस्तु कुछ महिमावंत नहीं है।

मुमुक्षुः- समझ की हो, लेकिन अन्दर कुछ आचरण करनेका आता नहीं।

समाधानः- वह आचरण ही है। स्वभावकी ओर जिसे सच्ची समझ हो, वह अंतरमें उतना लीन होता ही नहीं। उसे जो विभाव परिणाम संकल्प-विकल्प आये उसमें उसकी तन्मयता नहीं होती। रस टूट ही जाता है। उसका हृदय भीगा हुआ रहता है। उसे कहीं चैन नहीं पडता। स्वभावके सिवा कहीं चैन नहीं पडता। उसे बाह्य पदाथामें, खाने-पीनेमें हर जगहसे रस उड जाता है। अंतरसे निरस हो जाता है, स्वभावकी महिमा लगती है।

मुमुक्षुः- अनन्त.. अनन्त.. अनन्त काल गया तो भी मोक्ष प्राप्त नहीं हुआ। तो ऐसा लगता है कि अनन्त-अनन्त काल मोक्ष प्राप्त करनेके लिये लगता होगा?

समाधानः- अनन्त कालसे मोक्ष नहीं हुआ उसका कारण स्वयं कहीं-कहीं अटका है। मात्र क्रियामें धर्म मान लिया, थोडा कुछ कर लिया, कुछ शुभभाव कर लिया, कुछ दया, दान थोडा-थोडा कर लिया तो मानो धर्म हो गया। ऐसा मान लिया। इसलिये मोक्ष नहीं हुआ। कहीं-कहीं बाहर अटक गया। त्याग किया, मुनिपना लिया परन्तु बाहरमें मानों मैंने बहुत किया, मैंने त्याग किया, बहुत किया। ऐसा मान-मानकर अटका है। अंतरमें जो स्वभाव है, उसको ग्रहण नहीं किया है। अपना स्वभाव ग्रहण करे तो अनन्त काल लगे ही नहीं।

अनन्त काल लगनेका कारण क्रियाओंमें, बाहर शुभभावोंमें स्थित रहा। स्वभावको