१८२ प्रतापसे सुनने (मिला)।
मुमुक्षुः- गुरुदेव कोई बार ऐसा कहते थे कि पर्याय जितना ही तू नहीं है और कोई बार ऐसा कहते थे कि पर्यायसे तू भिन्न है।
समाधानः- पर्याय जितना तू नहीं है अर्थात पर्याय तो क्षण-क्षणमें बदल जाती है। तू शाश्वत आत्मा है। पर्यायसे भिन्न अर्थात पर्यायका स्वभाव भिन्न और तेरा स्वभाव भिन्न है। वह क्षणिक है, तू त्रिकाल है। भिन्नताका अर्थ ऐसा लेना है, सर्वथा प्रकारसे भिन्न है ऐसा अर्थ नहीं है। अपेक्षासे भिन्न है। सर्वथा प्रकारसे सर्व प्रकारसे भेद हो तो द्रव्य पर्याय बिनाका हो जाय और पर्याय स्वयं द्रव्य बन जाय। इस तरह सर्वथा प्रकारसे भिन्नका अर्थ नहीं था। परन्तु तू कोई अपेक्षासे भिन्न है।
तू समझ कि तेरा स्वभाव त्रिकाल शाश्वत रहनेका है और पर्याय क्षणिक है। ऐसे समझना। उस अपेक्षासे भिन्न है। सर्वथा भिन्न (हो तो) द्रव्य पर्याय बिनाका हो जाय। तो द्रव्य उसे कहते हैं कि जिस द्रव्यके अन्दर उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य सहित हो वह द्रव्व कहनेमें आता है। और पर्याय उसे कहते हैं कि द्रव्यके आश्रयसे जो पर्याय होती हो वह पर्याय है। पर्याय वैसी स्वतंत्र नहीं है कि वह पर्याय स्वयं बिना द्रव्यके परिणमती हो। ऐसे पर्याय नहीं रहती है। परन्तु दोनोंके स्वभाव भिन्न हैं। उस अपेक्षासे उसे भिन्न कहनेमें आता है। इसलिये भिन्न कहा है।
मुमुक्षुः- ..
समाधानः- हाँ, पर्याय जितना नहीं है। अर्थात पर्याय क्षणिक है और तू त्रिकाल है।
मुमुक्षुः- मिथ्यात्व चला आता हो, एक बार तो ज्ञानीकी देशना नियमसे जीवको प्राप्त होनी ही चाहिये।
समाधानः- ऐसा निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध है। अनादिका जो मिथ्यात्व है, उसमें एक बार सच्चे गुरु अथवा सच्चे देव उसे मिले तो उपादान स्वयंका, परन्तु वाणीका निमित्त बनता है। अनादि कालका अनजाना मार्ग है। ऐसी देशना एक बार उसे मिले, परन्तु वह मात्र देशनारूपसे देशना नहीं, परन्तु उसे अंतरमेंसे ग्रहण हो जाय। वह देशना तो सबको लाभकर्ता ही होती है। वह तो प्रबल निमित्त होती है। परन्तु स्वयं अन्दरसे ग्रहण करे तब देशनालब्धि हो। अनादिमें एक बार तो उसे देशना मिले फिर उसे संस्कार डले तो अपनेआप अपने उपादानसे तैयार हो जाय, परन्तु एक बार तो उसे ऐसा निमित्त बनता है।
मुमुक्षुः- हेयबुद्धिका अर्थ क्या है?
समाधानः- शुभभाव आदरणीय नहीं है, शुभभाव मेरा स्वभाव नहीं है। शुभभाव