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ग्रहण हो उस प्रकारसे स्पष्ट कहा है। तेरा स्वरूप तेरेमें है, पर तुझमें नहीं है। पूरा मार्ग स्पष्ट करके दिखा दिया है।
मुमुक्षुः- आप कहते हो उस अनुसार परिणति ही इस ओर मुडती नहीं।
समाधानः- परिणति पलटनी चाहिये। उसमें पुरुषार्थकी तैयारी करनी पडती है।
मुमुक्षुः- "तत्प्रति प्रीतिचित्तेन येन वार्तापि हि श्रुता'। उसका अर्थ क्या समझना?
समाधानः- रुचिपूर्वक वार्ता सुनी है, भावि निर्वाण भाजनं। अंतरकी रुचिपूर्वक सुना है तो उसकी परिणति पलटे रहेगी ही नहीं। लेकिन वह पलटे कब? स्वयं करे तो हो। भावि, भावि है। कभी भी पलटे ऐसा उसका अर्थ है। भविष्यमें निर्वाणका भाजन है। अंतरकी रुचिपूर्वक जिसने बात भी सुनी है, उसकी परिणति पलटे बिना रहेगी नहीं। भविष्य निर्वाण भाजनं। उसका अर्थ स्वयं पुरुषार्थ करके उसका पलटना होगा। लेकिन जो जिज्ञासु हो उसे ऐसा होता है कि मेरी परिणति कैसे पलटे? उसे पुरुषार्थ करनेकी स्वयंको भावना रहती है।
मुमुक्षुः- वह ऐसे कथनोंका आधार नहीं लेता। समाधानः- हाँ, आधार नहीं लेता। उसकी भावना ऐसी होती है कि कैसे पलटे? कैसे पुरुषार्थ करुँ? कैसे करुँ? ऐसी भावना और वैसी लगन लगानेवालेको पलटती है। फिर कब पलटे वह उसकी योग्यता अनुसार (होता है), परन्तु उसकी भावना ऐसी होती है कि कैसे पुरुषार्थ करुँ? कैसे हो? कैसे पुरुषार्थ करु तो पलटे? ऐसी उसकी भावना होती है। पुरुषार्थ करनेकी ही भावना होती है।