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समाधानः- द्रव्य, गुण, पर्याय स्वतंत्र हैं। लेकिन दो द्रव्य स्वतंत्र है, दोनों द्रव्य स्वतंत्र है वैसे गुण और पर्याय वैसे स्वतंत्र नहीं है। स्वतंत्र तो लक्षण, प्रयोजन, संख्या आदिसे स्वतंत्र है। गुण एक-एक सबका.. ज्ञान, दर्शन, चारित्र, आनन्द ऐसे गुण स्वतंत्र हैं। जो गुण परिणमते हैं उसकी पर्याय स्वतंत्र है। वह सब स्वतंत्र है। तो भी गुण और पर्यायको द्रव्यका आश्रय है। द्रव्यके आश्रयसे है। स्वतंत्र, अपने स्वभावसे स्वतंत्र है। तो भी गुणका समूह तो द्रव्य है। ऐसा कहनेमें आता है। दोनों अपेक्षाएँ भिन्न- भिन्न हैं। अपेक्षासे बात है।
मुमुक्षुः- उसको ध्यानमें रखना पडेगा।
समाधानः- हाँ, ध्यानमें रखना। स्वतंत्र (कहनेसे) ऐसे स्वतंत्र नहीं है कि गुण द्रव्य हो जाय, ऐसा स्वतंत्र नहीं है। ऐसा स्वतंत्र होवे तो जितने गुण हैं, उतने द्रव्य हो जाय। ऐसे स्वतंत्र नहीं हैं। गुण द्रव्यमें रहते हैं। पर्याय द्रव्यके आश्रयसे होती है। अपेक्षा लक्ष्यमें रखनी चाहिये।
मुमुक्षुः- द्रव्यकी पर्याय नहीं होती, ऐसा समझमें तो होना चाहिये। गुणकी पर्याय होती है, द्रव्यकी नहीं होती।
समाधानः- नहीं, ऐसा नहीं है। द्रव्यकी भी पर्याय होती है, गुणकी पर्याय होती है। गुणपर्याय, अर्थपर्याय, व्यंजनपर्याय ऐसा कहनेमें आता है। अखण्डरूपसे द्रव्यपर्याय कहनेमें आता है। एक-एक गुणकी भिन्न-भिन्न पर्याय अर्थपर्याय कहनेमें आती है। गुणकी पर्याय।
मुमुक्षुः- सुनते भी है, करते भी है, लेकिन फिर भी अंतरमें लक्ष्य नहीं होता है। ऐसी कचास है।
समाधानः- लक्ष्य करनेमें अपना पुरुषार्थ करना चाहिये। पुरुषार्थसे होता है। भावना ऐसी होवे कि अंतर लक्ष्य हो। अंतर दृष्टिसे सब प्रगट होता है। आत्मा मैं कौन हूँ? े मेरा क्या स्वभाव है? ये सब भिन्न हैं। शरीर अपना नहीं है, शरीर परद्रव्य है। विभाव भी अपना स्वभाव नहीं है। ऐसे चैतन्यद्रव्य ज्ञायक स्वभाव अनन्त गुणसे भरपूर ऐसा द्रव्य मैं हूँ, उस पर दृष्टि करनी चाहिये। उसका प्रयत्न करना चाहिये। अंतर्मुख दृष्टि करनेसे प्रगट होता है। बाहर बहिरदृष्टिसे नहीं होता, वह तो अंतरदृष्टिसे होता है। तो अंतरदृष्टि करनेसे जो द्रव्यमें है, गुण आनन्द सब प्रगट होता है।
मुमुक्षुः- वह अनुभवमें आयेगा।
समाधानः- वह अनुभवमें आयेगा। अंतरमें जानेसे अनुभवमें आता है।
मुमुक्षुः- बाहरकी बात करनेसे, बाहरके विचार करनेसे तो होता नहीं।
समाधानः- नहीं होता है।