१९६
मुमुक्षुः- संस्कार कुछ ऐसे हैं कि बाहरका एकदम नहीं छूटता है। अनादि कालका संस्कार है।
समाधानः- अनादि कालका संस्कार है। उस प्रवाहमें चला जाता है।
मुमुक्षुः- .. बना देता है तो फिर उधरमें...
समाधानः- तो भी बारंबार-बारंबार विचार, तत्त्व चिन्तवन ऐसा करना चाहिये। बारंबार, मेरी अंतरमें दृष्टि कैसे आवे? कैसे आवे? ऐसी भावना, लगन रखनी चाहिये और बारंबार-बारंबार पुरुषार्थ करना चाहिये। नहीं होता है तो बार-बार पुरुषार्थ करना चाहिये।
मुमुक्षुः- किस बातका पुरुषार्थ करें, माता?
समाधानः- मैं चैतन्य ज्ञायक हूँ, मैं चैतन्यद्रव्य हूँ। ये सब मैं नहीं हूँ। ऐसे अंतरकी दृष्टि करना चाहिये। चैतन्यद्रव्य हूँ, वह विचारसे ठीक, परन्तु उसका स्वभाव ग्रहण करके उसे ग्रहण करना चाहिये। बारंबार प्रयत्न करना चाहिये। स्थूल उपयोग बाहर जाता है तो उपयोगको सूक्ष्म करके, मैं चैतन्य हूँ, ऐसे ग्रहण करना चाहिये। चैतन्य जो जाननेवाला ज्ञायक है वह मैं हूँ। ऐसा बारंबार पुरुषार्थ करना चाहिये।
मुमुक्षुः- एक तो ज्ञानका पुरुषार्थ और रुचिका पुरुषार्थ। ज्ञानका पुरुषार्थ स्वकी ओर उपयोग लगाना। उसमें मुख्यता किसकी है?
समाधानः- स्व-ओर ज्ञायकको ग्रहण करना। रुचि ज्ञायककी.. ज्ञायक.. ज्ञायक मैं हूँ, वह ज्ञानका पुरुषार्थ हुआ। ज्ञायकको ग्रहण करना। उसमें रुचि बिना ग्रहण होता नहीं। स्वभावको पहिचाने बिना भी ग्रहण होता नहीं। इसलिये उसमें ज्ञान साथमेंं आ गया। ये ज्ञानलक्षण सो मैं हूँ। ये विभावलक्षण मैं नहीं हूँ। ये ज्ञायकका लक्षण जो है वह मैं हूँ। ऐसी सूक्ष्म प्रज्ञाछैनी तैयार करनी वह ज्ञान है। ज्ञायककी ओर ज्ञान मुडता है, रुचि मुडती है, उसकी परिणति उस ओर मोडनी।
मुमुक्षुः- उसमें मुख्य-गौण कुछ नहीं है? रुचिका पुरुषार्थ या ज्ञानका पुरुषार्थ।
समाधानः- जिसकी रुचि तीव्र हो उसे ज्ञान साथमें आ जाता है, उसके साथ उसकी एकाग्रता भी आ जाती है। उसकी रुचि जोरदार हो तो साथमें आ जाता है। रुचि मन्द-मन्द काम करती हो तो उपयोग बाहर चलता रहता है।
मुमुक्षुः- उपयोग भी विकल्प ही है?
समाधानः- उपयोगके साथ विकल्प रहता है। उपयोग वह विकल्प है ऐसा नहीं, उपयोगके साथ-साथ विकल्प आते हैं, इसलिये वह विकल्पात्मक उपयोग कहनेमें आता है। उपयोग तो निर्विकल्प भी होता है। विकल्प छूटकर जो उपयोग स्वभाव जाय, ज्ञायक स्वभावको ग्रहण करके उसमें लीनता करे, भेदज्ञान करे और उपयोग स्वमें स्थिर हो