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ऐसा कहते हैं। वह जड नहीं है। वहाँ दूसरी अपेक्षासे बात है। यहाँ दूसरी अपेक्षासे बात है।
अनादिअनन्त शाश्वत द्रव्य जैसा है वैसा है। ऐसे द्रव्यको पहिचान। फिर साधक अवस्थामें वह ज्ञायक तो ज्ञायक ही है। प्रगट हुआ वह ज्ञायक। ज्ञायककी परिणति प्रगट हुयी, ज्ञायक ज्ञायक ही है। अधूरी अवस्था जितना ज्ञायक नहीं है। इसलिये दृष्टि ज्ञायक पर करनी। लेकिन वहाँ ऐसा कहते हैं कि जो पर्याय... पर्यायका ज्ञान कर। लेकिन वह अशुद्धता तेरा स्वभाव नहीं है। परन्तु वह पर्याय तेरी अवस्था है। पर्याय जडकी नहीं है, वहाँ ऐसा कहनेका आशय है।
मुमुक्षुः- द्रव्य तन्मय नहीं है।
समाधानः- तन्मय कहें, व्यवहारसे तन्मय कहलाता है। वास्तविक द्रव्यका स्वभाव उसमें पलटकर कहीं द्रव्य उस रूप नहीं हो जाता। तो-तो शुद्ध होवे ही नहीं। वस्तु स्वभावसे द्रव्य शुद्ध है, परन्तु पर्यायमें उसे अशुद्धता कहनेमें आये। व्यवहारसे अशुद्धता कहनेमें आये। बिलकूल नहीं हुआ हो तो जडमें ही होता है ऐसा नहीं है। तो स्वयंको पुरुषार्थ करके टालना नहीं रहता। तन्मय होता है, वह व्यवहारसे तन्मय कहनेमें आता है। प्रवचनसारमें उस अपेक्षासे बात है।
ऐसा तन्मय नहीं है कि उसमेंसे बिलकूल भिन्न ही न पडे। जैसे बर्फ और शीतलता, उसका स्वभाव ही (तन्मय है)। वैसे उसका ज्ञानस्वभाव अलग नहीं पडता ऐसा तन्मय है। उस प्रकारसे विभाव तन्मय नहीं है। परन्तु वह तन्मय है, व्यवहारसे तन्मय कहनेमें आये। क्योंकि उस रूप वह परिणमा है, वर्तमानमें उस रूप परिणमा है इसलिये। इसलिये उसे व्यवहारसे तन्मय कहनेमें आता है। प्रवचनसारमें वह कहते हैैं। दोनों अपेक्षाएँ भिन्न- भिन्न हैं। वहाँ पर्याय तेरेमें होती है, ऐसा कहते हैं। यहाँ कहते हैं, उस पर्यायके स्वरूप पर दृष्टि नहीं करके, तू ज्ञायक है, उस पर दृष्टि कर। पर्यायके फेरफार हो, उस पर दृष्टि नहीं करके, तू ज्ञायक सो ज्ञायक है, ऐसी शुद्धतासे भरा शुद्ध ज्ञायक है। वहाँ ऐसा कहते हैं। पर्यायकी अशुद्धता तेरेमें आती नहीं।
इसलिये तू द्रव्यदृष्टि प्रगट कर, भेदज्ञान प्रगट कर, तो ही मुक्तिका मार्ग प्रारंभ होता है। इसलिये ऐसा नहीं कहना है कि वह पर्याय जडमें होती है। पर्याय जडमें होती है ऐसे नहीं, तेरी पर्याय, तेरी चैतन्यकी पर्यायमें तेरे पुरुषार्थकी मन्दतासे होता है। उसका ज्ञान कर। लेकिन दृष्टि तो ज्ञायककी शुद्धता कैसी है, यह बताते हैं वहाँ। ऐसी परिणति हो तो ही स्वानुभूति हो, तो ही मुक्तिका मार्ग प्रारंभ हो। लेकिन पर्याय जडमें होती हो तो पुरुषार्थ करना कहाँ रहता है? पर्यायमें वह अशुद्धता है और उसे टालकर शुद्ध पर्याय प्रगट होती है। वह पलटकर शुद्ध पर्याय प्रगट होती है। शुद्धता