स्वयं ऐसा अस्तित्व अनन्त शक्तिसे भरा है। वह सत अनन्त शक्तिसे भरा है। जिसमें अनन्तता भरी है। वह ज्ञानस्वभाव उसमें उसका है। ऐसा स्वयं नक्की करे, उसकी प्रतीत करे तो उसमेंसे शान्ति प्रगट होती है। उस पर्यायमें शान्ति प्रगट हो, उस अनुसार परिणति प्रगट करे प्रतीत करके। उसकी भेदज्ञानकी परिणति प्रगट करे कि मैं सत-ज्ञायक सत सो मैं हूँ। यह विभाव परिणति मेरा मूल स्वभाव नहीं है। यह ज्ञानस्वभावका जो अस्तित्व है वही मैं हूँ, ऐसी परिणति प्रगट करके उसमें दृढता करे, उसमें लीनता करे तो उसमेंसे उसे स्वानुभूति प्रगट होती है।
मुमुक्षुः- ..ऐसा कहनेके पीछे क्या प्रयोजन है?
समाधानः- दो स्वभाव-एक रागस्वभाव विभाव और ज्ञानस्वभाव। दोनों ख्यालमें (आते हैं)। ज्ञायक सो मैं हूँ, ऐसा कहनेका प्रयोजन यह है कि तू क्षणिकमें मत अटकना, जो शाश्वत है उसे ग्रहण कर। ये सब पर्यायें हैं, वह क्षण-क्षणमें पलटनेवाली हैं। उसका तू ज्ञान कर, उसमें अटकना मत, ऐसा कहना है।
जो साधक दशाकी पर्याय है, ये अधूरी ज्ञान, दर्शन, चारित्र पर्याय है उतना ही तेरा स्वरूप नहीं है। तेरा स्वरूप अनादिअनन्त सत, ज्ञायक जो अनादिअनन्त है वही मैं हूँ। उसमें क्षणिकमें तू मत अटकना। परन्तु जो मूल स्वभाव है उसे ग्रहण कर। उसे नहीं अटकनेके लिये (कहते हैं)। मूल वस्तु ग्रहण करवानेको, द्रव्य ग्रहण करवानेका उसका प्रयोजन है। द्रव्यदृष्टि प्रगट कर और इन सबका ज्ञान कर।
पर्याय नहीं है इसलिये उसमें साधक दशा प्रगट नहीं होती है, ऐसा नहीं। साधक दशा प्रगट होती है। सब पर्यायें होती हैं। साधक दशाकी पर्याय (प्रगट होती है), परन्तु तू उतना ही नहीं है। तू तो मूल वस्तु है उसे ग्रहण कर। पर्यायमें नहीं अटकते हुए मूल द्रव्य पर दृष्टि कर, ऐसा कहना है। पर्याय बीचमें आती है, उसका ज्ञान कर। स्वानुभूति प्रगट हो वह भी पर्याय है। सब पर्याय हैं। वेदनकी पर्याय प्रगट होती है वह भी पर्याय है। लेकिन तू द्रव्य पर दृष्टि कर। उसमें बीचमें शुद्ध पर्यायें तो प्रगट होती है। वह वेदनमें आती है। परन्तु दृष्टि तू द्रव्य पर रख। दृष्टि प्रगट करनेके लिये...
समाधानः- ... ऐसे मैं तो भिन्न चैतन्यतत्त्व हूँ। ये विभावस्वभाव चैतन्यका स्वभाव नहीं है। ऐसे आकुलता स्वभाव मेरा नहीं है, मेरा तो निराकूलता हूँ। मैं तो चैतन्य हूँ, उसमें आनन्द भरा है, ज्ञान भरा है। ज्ञायकतत्त्व मैं हूँ। ज्ञायकका लक्ष्य करना, ज्ञायककी पहचान करना। उसका अभ्यास करना। ऐसे तन्मयता-एकत्वबुद्धि तोडनेका प्रयत्न करना। स्वरूपमें एकत्व और परसे विभक्त, ऐसे प्रयत्न करना। बारंबार उसका अभ्यास करना। ऐसा तत्त्वविचार, मनन, आत्माकी महिमा, देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा उसके साथ ज्ञायककी महिमा करना। उसका विचार (करना)। एक आत्माको ग्रहण करनेका प्रयत्न