२३६ करना।
मैं ज्ञायक हूँ, मैं ज्ञायक हूँ। ज्ञायक अनन्त गुणसे भरपूर हैं। लेकिन ऐसा भेदविकल्प भी विकल्प है। लेकिन दृष्टिमें अभेदको ग्रहण करना। उसका प्रयत्न करना। ज्ञान तो साथमें आता है कि यह ज्ञान है, दर्शन है, चारित्र है, ऐसा सब विचार तो आता है, लेकिन वह भेदविकल्प है। मैं तो अखण्ड निर्विकल्प स्वरूप हूँ। ऐसी दृष्टि करनेका प्रयत्न करना। बारंबार उसका अभ्यास करना।
निराकूलता होनेका यह उपाय है। आत्माको ग्रहण करना-ज्ञायकको ग्रहण करना- निर्विकल्प स्वरूप आत्माको ग्रहण करना। अंतर दृष्टि करनेसे वह ग्रहण होता है। पहले ज्ञान करनेके लिये सब विचार बीचमें आते हैं। तो भी मैं अखण्ड चैतन्यतत्त्व निर्विकल्प हूँ। उसमें दृष्टि, ज्ञान, उसमें लीनता ऐसे करनेका प्रयत्न करना। वह उसका उपाय है। बारंबार उसका अभ्यास करनेसे विकल्प टूटकर स्वानुभूति करनेका प्रयत्न करना। वह उसका उपाय है।
मुमुक्षुः- ज्ञायकका अभ्यास?
समाधानः- हं..?
मुमुक्षुः- ज्ञायकका अभ्यास।
समाधानः- ज्ञायकका अभ्यास, बस, ज्ञायकका अभ्यास। मैं ज्ञायक हूँ। मैं ज्ञायक शून्य नहीं हूँ, परन्तु भरपूर भरा हूँ। महिमा(वंत) अनन्त गुणोंसे भरपूर हूँ। अनुपम तत्त्व है। उसका अभ्यास करना।
समाधानः- ... गुरुदेवने कहा वह करना है। जो मार्ग बताया है उस मार्गका शरण लेने जैसा है। गुरुदेवने कहा, आत्मा तो शाश्वत है। ऐसे जन्म-मरण, जन्म-मरण जीवने अनन्त किये हैं। किसीको छोडकर स्वयं चला जाता है और अपनेको छोडकर दूसरे चले जाते हैं। ऐसे अनन्त जन्म-मरण किये। उसमें यह मनुष्यभव मिला। इस मनुष्यभवमें आत्माकी कुछ रुचि और आत्माको पहिचाने तो वह सफल है। बाकी जन्म-मरण संसारमें चलते रहते हैं। ऐसे शान्ति रखनी।
आत्मा शरणरूप (है)। देव-गुरु-शास्त्र शरण है और आत्मा शरण है। सच्चा तो यह है, वास्तवमें यह करना है। गुरुदेवने सच्चा मार्ग बताया है कि तू अंतर आत्माको पहिचान ले। शान्ति रखना। बडे चक्रवर्तीओंका आयुष्य पूर्ण हो जाता है। परन्तु इस मनुष्य भवमें आत्माका कुछ हो तो वह सफल है।
इस जीवने अनन्त जन्म-मरण किये हैैं। जितने जगतके परमाणु हैं पुदगलके, सबको ग्रहण किया और त्याग किया। इस आकाश प्रदेशके एक-एक क्षेत्रमें वह अनन्त जन्म- मरण कर चूका है। ऐसे अनन्त जन्म-मरण जीवने किये हैं। द्रव्य परावर्तन और क्षेत्र