२३८ साथ मेरा कोई सम्बन्ध नहीं है। प्रत्येक द्रव्य स्वतंत्र परिणमते हैं। मैं स्वतंत्र हूँ, मेरे आत्माका शरण ग्रहण करुँ। वह विचार करने जैसा है। बाकी जीवने सबको अपना माना है। शास्त्रमें आता है कि एक पागल आदमी (था)। राजाका लश्कर और सब आते हो तो कहता है कि ये मेरा है, मेरा है। फिर समय होने पर सब चले जाते हैं। तो कहता है कि ये सब मेरे थे। ये लश्कर आदि सब क्यों चले जाते हैं? तेरा था ही नहीं, इसलिये जाते हैं। उसमें तूने मूर्खताके कारण माना है कि ये सब मेरा है। इसलिये अपना स्वामीत्व उठाकर, मेरा ज्ञायक आत्मा वही मेरा है, अन्य कुछ भी मेरा नहीं है। ऐसा निश्चय और ऐसी प्रतीत करने जैसा है। रागके कारण जूठी तरह स्वयं अपना मान लेता है।
मुमुक्षुः- एक ज्ञायकको ग्रहण करने जैसा है।
समाधानः- एक ज्ञायक आत्मा शरण, बस। एक ज्ञायककी महिमा, ज्ञायकका विचार, ज्ञायकका अभ्यास, उसका मनन, उसका अभ्यास, सब करने जैसा है। कठिन तो लगे, अनादिका अभ्यास नहीं है इसलिये कठिन लगता है। परन्तु उसे पलटने पर ही छूटकारा है। अपना स्वभाव है इसलिये सहज है। परन्तु अनादिका परमें गया है, इसलिये दुर्लभ हो गया है। इसलिये उसे पुरुषार्थ करे, बल करके बदलने जैसा है। उसे पलटकर अपने स्वघरकी ओर आने जैसा है। परके साथ मेरा कोई नाता या सम्बन्ध अनादि कालसे है नहीं, लेकिन स्वयंने माना है।
प्रत्येक द्रव्य स्वतंत्र हैं। सबके द्रव्य-गुण-पर्याय स्वतंत्र हैं। सबके कर्म, सबके भाव, सब स्वतंत्र हैं। इसलिये स्वयंको अपना विचार बदलकर, एक ज्ञायक आत्मा वही (मैं हूँ)। अनन्त गुणोंसे भरा हुआ, अनन्त गुण-पर्यायसे भरा हुआ आत्मा वही मैं हूँ। स्वभावको ओर मुडे तो शुद्ध पर्याय होती है और विभावकी ओर मुडे तो विभावपर्याय होती है। इसलिये स्वयंको ग्रहण करके अपनी शुद्धात्माकी शुद्ध पर्याय कैसे प्रगट हो, वह करने जैसा है।
चत्तारी मंगलं, अरिहंता मंगलं, साहू मंगलं, केवलिपणत्तो धम्मो मंगलं। चत्तारी लोगुत्तमा, अरिहंता लोगुत्तमा, सिद्धा लोगुत्तमा, साहू लोगुत्तमा, केवलिपणत्तो धम्मो लोगुत्तमा।
चत्तारी शरणं पवज्जामि, अरिहंता शरणं पवज्जामि, सिद्धा शरणं पवज्जामि, केवली पणत्तो धम्मो शरणं पवज्जामि।
चार शरण, चार मंगल, चार उत्तम करे जे, भवसागरथी तरे ते सकळ कर्मनो आणे अंत। मोक्ष तणा सुख ले अनंत, भाव धरीने जे गुण गाये, ते जीव तरीने मुक्तिए जाय। संसारमांही शरण चार, अवर शरण नहीं कोई। जे नर-नारी आदरे तेने अक्षय अविचल