१७१
पद होय। अंगूठे अमृत वरसे लब्धि तणा भण्डार। गुरु गौतमने समरीए तो सदाय मनवांछित फल दाता।
आपके घरमें आपकी बहनोंको सबको यह रुचि है। आप शान्ति रखना। गुरुदेवने जो मार्ग बताया है उसका विचार करके शान्ति रखने जैसा है। राग हो उसे बदलकर, पुरुषार्थ करके,.... रागके कारण दुःख हो, लेकिन शान्ति रखनी वही उसका उपाय है। वही रुचि सबको (करने जैसी है), गुरुदेवने वही मार्ग बताया है।
ऐसे प्रसंग देखकर वैराग्यका कारण होता है कि ऐसे प्रसंग बनते हैं। घरमें सबको रुचि है। उसका विचार, मनन, रुचि, महिमा, स्वाध्याय वह सब करने जैसा है। अंतरमें उतने विचार न चले तो स्वाध्याय करना। गुरुदेवने जो कहा है, उसका विचार करना। गुरुदेवने जो प्रवचन किये हैं उसका मनन करना, वांचन करना, वह सब करने जैसा है।
देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा, एक ज्ञायक कैसे पहिचानमें आये? वह द्रव्य क्या है? गुण क्या है? उसका स्वभाव क्या? वह कैसे प्रगट हो? उसके लिये उसका विचार, मनन सब (करने जैसा है)।
समाधानः- .. तू उसमें आ नहीं सकेगा। भेदज्ञानकी डोर द्वारा वह पीछे पड जाता है और गुप्त घरमें आ नहीं सकता है। खडा तो होता है, वह सब विभावके शत्रु खडे होते हैं, परन्तु भेदज्ञानका हथियार उसके पास ऐसा है कि वह पीछे पड जाता है और स्वयंका घर उसके हाथमें है। स्वघर उसके हाथमें है। स्वघरमें जाता है। वह उसे पहुँच नहीं सकता है। फिर भी वह साथ-साथ जब तक केवलज्ञान नहीं हो जाता तब तक खडा है। लेकिन भेदज्ञानके पुरुषार्थकी डोर है। उसे तोडता हुआ और निज स्वभावको प्रगट करता हुआ चला जाता है।
स्वभावघरकी परिणति वर्धमान करता हुआ इसको तोड देता है। स्वघरका निवास उसे बढता जाता है। उसमें विश्राम करते जाता है। आस्रव-विभाव टूटता जाता है। चैतन्यके घरमें... चैतन्य विज्ञानघन स्वभावमें आकर मिलता है। पूरा हो गया तो भी पीछेसे आया। ... नीचे आदमी कैसे पहुँच सके? वह तो ऊपर-ऊपर चढता जाता है। ज्ञानपरिणतिमें ऊपर-ऊपर चढता जाता है, विभाव कम होता जाता है। अंतर तलमें जाय तो अन्दर गहराईमें गुप्त हो जाता है। उसमें पहुँच नहीं सकता। मार्ग और पानीका दृष्टान्त एकदम सुन्दर आचार्यदेवने (दिया है)।
स्वयंको जो परिणति प्रगट हुयी है, उस परिणतिको अपनी खीँचता जाता है। परिणति अपनेको खीँचती जाती है। अपने स्वघरके अन्दर, चल रे चल, परिणति कहती है, यहाँ अन्दर जाना है, बाहर नहीं जानेका है। बाहर नहीं जाना है, अन्दर (जाना है)। ऐसा कहकर परिणतिको खीँचता है। अन्दर चल, अन्दर चल। बाहरमें कहीं... बाहर