शास्त्रमें आता है न? उतना कल्याण, सत्यार्थ कल्याण एक ही कि जो यह ज्ञानस्वरूप आत्मा है, ज्ञायक आत्मा है। उसमें संतुष्ट हो, उसीमें तृप्त हो, वही करनेका है। उसीमें सब सर्वस्व है। वह ग्रहण होता है। भले पर्याय है, परन्तु अखण्डको ग्रहण कर लेती है।
मुमुक्षुः- जी हाँ, उसमें ताकत है।
समाधानः- उसमें ग्रहण करनेकी ताकत है।
मुमुक्षुः- अंश है लेकिन स्वभावका है।
समाधानः- अपने ज्ञानका अंश है, वह द्रव्यको ग्रहण करता है। उसकी दिशा अपनी ओर जाय, दृष्टि अपनी ओर जाय तो ग्रहण करता है। उपयोग बाहर हो वह ग्रहण नहीं करता। अपने स्वभावकी ओर जाय तो स्वभावको ग्रहण करता है।
मुमुक्षुः- स्वास्थ्य कैसा रहता है? माताजी!
समाधानः- गुरुदेवने बहुत प्रभावना की है। अपने तो उनके पास समझे हैं।
मुमुक्षुः- गुरुदेव यहाँ आये कि नहीं? माताजी! आप तो उनके अनन्य भक्त हैं।
समाधानः- वर्तमानमें साक्षात कोई नहीं आ सकता। स्वप्न आये वह तो आते हैं।
मुमुक्षुः- देव हैं, माताजी! आ नहीं सकते?
समाधानः- इस पंचमकालमें देव कहाँ अभी आते हैं? साक्षात देव आते नहीं।
मुमुक्षुः- ये तो उनकी तपोभूमि है न।
समाधानः- आये तो किसीकी देखनेकी शक्ति कहाँ है? देवोंको देखनेकी अभी के मनुष्योंकी शक्ति कहाँ है?
मुमुक्षुः- हम तो आपके लिये कहते हैं।
समाधानः- आनेका विचार आये तो कोई देख सके ऐसा कहाँ है? कोई हिन्दी आकर ऐसा कहते हैं, मानों गुरुदेव प्रवचन देने आते हों, फिर चले जाते हैं, ऐसा लगता है। ऐसा कहते हैं।
मुमुक्षुः- मेरी भावनाका घोटन चल रहा था कि माताजीके पास जाकर ... माँगुंगी।
समाधानः- बडे हो गये हैं। जीवनमें ध्येय तो वही है। गुरुदेवने कहा वह। बाहरका तो सब होता है, सब चलता रहता है। बाकी अन्दर लक्ष्य तो एक चैतन्यका करने जैसा है। जीवनका ध्येय तो वही करनेका है। आत्माको पहिचानना वही करनेका है। भवभ्रमणका अभाव कैसे हो? और शुद्धात्माकी प्राप्ति कैसे हो? वह करनेका है।
मुमुक्षुः- सोनगढमें रहने पर भी प्रवृत्ति इतनी रहती हैं कि उसमें हमें किस प्रकारकी जागृति रखनी?
समाधानः- प्रवृत्ति आत्माको रोक नहीं सकती। अंतरकी परिणति स्वयंको जैसी