२४४ करनी हो वैसी कर सकता है। बाहरगाँव जाय तो इससे भी ज्यादा प्रवृत्ति हो जाय। यहाँ तो इसके सम्बन्धित सब होता है। बाहरगाँव तो दूसरी प्रवृत्ति हो जाती है। यहाँ तो आत्माके संस्कार दृढ कैसे हो, वैसी प्रवृत्ति होती है। इसलिये स्वयं अपने संस्कार दृढ करना वह अपने हाथकी बात है, अपने पुरुषार्थकी बात है। हो सकता है, बाहरके शुभके कार्य हों तो भी अंतरमें हो सकता है। स्वयंको जो पुरुषार्थ करना हो वह हो सकता है।
यहाँकी सब प्रवृत्ति तो शुभकी होती है। बारंबार उसके विचार, उसका घोलन, उसका सिंचन, यहाँ तो सब वही रहता है। इसलिये बारंबार उसीकी दृढता कैसे हो, (वह कर सकता है)। अंतरमें गहरी रुचि प्रगट होकर चैतन्यतत्त्व कैसे पहिचानमें आये? भवका अभाव कैसे हो? आत्माका सुख कैसे प्राप्त हो? स्वानुभूति कैसे हो? वह सब भावना अन्दर करने जैसा है। वह करनेका है।
मुमुक्षुः- करने जैसा तो लगता है, परन्तु अन्दरसे, जैसे भरत चक्रवर्तीके पुत्रोंका पुरुषार्थ कैसे फटा, वैसे हमारा पुरुषार्थ आपकी वाणीसे एकदम जल्दी जागृत हो जाय...?
समाधानः- पुरुषार्थ तो स्वयंको करनेका है। भरत चक्रवर्तीके पुत्रोंकी बात करते हैं। करनेका स्वयंको है। उन्हें पुरुषार्थ ऐसा उग्र हो गया तो हो गया। अपनी उतनी कचास है कि उतनी उग्रता (नहीं है)।
मुमुक्षुः- यहाँ तो बरसोंसे रहते हैं, फिर भी उग्रता होेनेमें क्यों देर लगती है?
समाधानः- सब आत्मा स्वतंत्र हैं। चतुर्थ कालमें क्षणमें अंतर्मुहूर्तमें केवलज्ञान प्राप्त करते थे, क्षणमें मुनिपना ले ले, क्षणमें सम्यग्दर्शन प्राप्त करते थे। ऐसे सब जीव पुरुषार्थ करते थे। सम्यग्दर्शन क्षणमात्रमें हो जाता था। क्षणमात्रमें वैराग्य आ जाता, केवलज्ञान हो जाता था। भगवानकी मौजूदगी हो तो अनेक जीव एकदम जागृत हो जाते थे। परन्तु इस पंचमकालमें गुरुदेव मिले और इतने संस्कार अन्दर डले वह भी महाभाग्यकी बात है। इस पंचमकालमें यह मिलना भी दुर्लभ है।
मुमुक्षुः- दुनियामें कहीं और जगह है ही नहीं। अपने तो सीमन्धर भगवान मिले और आपका इतना योग मिला।
समाधानः- करनेका तो स्वयंको है। भेदज्ञान करना, क्षण-क्षणमें जागृति रखनी, सब अपने हाथकी बात है। शरीर भिन्न, अन्दर आत्मा भिन्न, विभाव स्वयंका स्वभाव नहीं है। उसमें उसे संतोष नहीं होता, आत्माकी प्राप्ति हो तो संतोष हो। भेदज्ञानकी धारा अन्दरसे प्रगट करनी, वह अपने पुरुषार्थकी बात है। क्षण-क्षणमें एकत्वबुद्धि हो रही है, उसे तोडनी।
प्रथम तो... भरत चक्रवर्तीके पुत्रोंको क्षणमें सम्यग्दर्शन तो हुआ था, परन्तु मुनि