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हो गये। वह बात तो अलग है। अभी तो सम्यग्दर्शन कैसे हो, वह बात है। क्षण- -क्षणमें भेदज्ञानकी तैयारी करनी। क्षण-क्षणमें भेदज्ञान कैसे प्रगट हो? क्षण-क्षणमें स्वयं आत्माको भिन्न करे, ज्ञायककी स्वानुभूति कैसे हो? स्वयंकी बात तो बादमें आती है। वह बात तो दूर है। अभी तो स्वानुभूति हो और स्वानुभूतिमें लीनता, चैतन्यमें लीनता बढते-बढते स्वानुभूतिकी विशेषता हो, वह बात तो उससे दूर है। पहले तो अन्दर भेदज्ञानकी धारा प्रगट हो वह प्रथम करनेका है। परन्तु गुरुदेवने यह मार्ग दर्शाया और उस मार्ग पर चलना हुआ, वह भी महाभाग्यकी बात है।
मुमुक्षुः- समुद्रमेेंसे किनारे पर आ गये, इतना सुन्दर योग हमारे लिये है।
समाधानः- मार्ग तो क्या है, वह गुरुदेवने इतना स्पष्ट करके कहा है कि कहीं रुकना न हो। जगतके जीव कहीं-कहीं रुके हैं। कोई कुछ क्रियामें, कोई इतना शुभभाव कर लिया उसमें धर्म मान लिया, किसीने कुछ (माना)। थोडा-थोडा करे उसमें धर्म मान लेते हैं।
गुरुदेवने तो कहा, एक ज्ञायकके अलावा कुछ (नहीं)। तू एक आत्माको ही ग्रहण कर। हर जगहसे दृष्टि उठाकर एक चैतन्य पर दृष्टि स्थापित कर। गुरुदेवने इतना स्पष्ट मार्ग करके दर्शाया है।
मुमुक्षुः- .. आप भी वैसे ही समझाते हों। आप सर्वांग सहजानन्दकी मूर्ति, जहाँसे देखो वहाँ आनन्द ही आनन्द। ऐसा आनन्द हमें कैसे जल्दी प्रगट हो, ऐसा होता है।
समाधानः- अंतरमें उतनी स्वयंको ज्ञायककी धारा प्रगट होनी चाहिये तो अंतरमेंसे आनन्द प्रगट हो। पहले तो यथार्थ प्रतीति उसकी इतनी दृढ होनी चाहिये, उतनी धारा प्रगट होनी चाहिये तो उसे आनन्द प्रगट हो।
मुमुक्षुः- इतना आनन्दसे भरा है और उसका लक्ष्य करनेमें इतना प्रयत्न और मेहनत करनी पडे?
समाधानः- अनादिका अभ्यास बाहर चला गया है। अन्य रुचिमें अटका है, बाह्य रुचिमें, इसलिये प्रयत्न नहीं चलता है। नहीं तो अपना स्वभाव है। वह कोई दुर्लभ है। स्वभाव अपना है और बाहर भटका रहता है, इसलिये दुर्लभ हो गया है। बाहर विभावमें दौडा करता है अनादिसे, इसलिये उसे अंतरमें आना मुश्किल पडता है।
मुमुक्षुः- है सरल, फिर भी मुश्किल।
समाधानः- हाँ, मुश्किल (है)। है सहज और सुलभ है। एक बार स्वयं अपनी ओर जाय तो सहज है। फिर उसे भवभ्रमण टूटकर शुद्धात्माकी ओर ही उसकी परिणति