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है न? उनका व्याख्यान.. उनकी वाणी...
मुमुक्षुः- उनकी वाणी बहुत अच्छी लगती थी।
समाधानः- उनकी वाणी कोई अलग ही थी। आत्माको बतानेवाली वाणी थी। वाणी तो चैतन्यका स्वरूप बताती थी। अंतरमेंसे कुछ अलग ही कहते थे। वे बोले उतनेमें तो लोग थँभ जाते थे। करनेका वही है। आत्मो कोई अलग ही पदार्थ है। गुरुदेवने बताया है।
पदार्थ कोई अपूर्व है। जगतमें सब जाना वह सब निष्फल है। प्रयोजनभूत एक आत्मा है। जगतमें सारभूत हो तो एक आत्मा ही सारभूत है। देवलोकका भव भी अनन्त बार मिला। परन्तु एक चैतन्य पदार्थ जीवने जाना नहीं। वह यथार्थ प्रयोजनभूत है। उसका विचार करने जैसा है, वह पढने जैसा है, वह सब करने जैसा है। उसकी महिमा करने जैसी है।
... करके उसका अभ्यास किया। गुरुदेवने कहा वह किया तो वह कुछ जीवनमें सफल है। बाकी सब तो जगतमें चलते रहता है। एक देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा, तत्त्वका विचार, वांचन, ज्ञायक कैसे पहिचानमें आये, वह सब। उसका भेदज्ञान वह सब करनेका प्रयास करे तो कुछ तो जीवनमें (सफलता है), यथार्थ तो बादमें प्रगट होता है। परन्तु पहले उसकी रुचि और अभ्यास करे तो भी सफल है।
मुमुक्षुः- .. कैसे करना?
समाधानः- प्रथम तो ऐसा है कि ज्ञान यथार्थ करना पडे। मार्गको यथार्थरूपसे पहिचानना पडे। तो साक्षात्कार हो। जो वस्तुका स्वभाव है, उस स्वभावको यदि बराबर पहिचाने तो उस स्वभावमेंसे आत्माकी जो निर्मलताकी प्राप्ति हो वह स्वभावको पहिचानकर होती है। ऐसे ही, स्वभावको पहिचाने बिना ऐसे ही ध्यान करे तो ध्यान कहाँ करना और कहाँ खडा रहना? इसलिये सर्व प्रथम स्वभावको पहिचानना कि आत्मा कौन है? उसका स्वभाव क्या है? ये बाहर शरीर तो परद्रव्य है। अन्दर विभाव, विकल्प होते हैं, वह विकल्प भी आत्माका स्वभाव नहीं है। आत्माका स्वभाव, जैसे सिद्ध भगवान हैं ऐसा आत्माका स्वभाव है। इसलिये स्वभावको पहिचानना।
आत्मा जाननेवाला ज्ञायक है। जो ज्ञान है उसीमेंसे ज्ञान प्रगट होता है। जिसका जो स्वभाव हो, उसमेंसे प्रगट होता है। विभावमेंसे स्वभाव नहीं आता, स्वभावमेंसे स्वभाव आता है। इसलिये स्वभावको पहिचानना। इसलिये स्वभावको पहिचानना। ज्ञानस्वरूप आत्मा है उसे बराबर पहिचानना। वह द्रव्य कौन है? उसके गुण क्या है? उसकी पर्याय क्या है? पहले यथार्थ ज्ञान करना। उसका प्रयोजनभूत ज्ञान तो पहले करना पडे। भले ज्यादा शास्त्र न जाने, लेकिन मूल वस्तु-द्रव्य क्या है? मैं कौन हूँ? मेरा