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मुमुक्षुः- वही कहती हूँ कि पुरुषार्थ और कर्म। हमारेमें पुरुषार्थ और कर्म दोनोंको करीब एक स्थानमें रखते हैं कि आपने आपके कर्म कैसे बाँधते हो और कैसे छोडते हो, उस पर आपके आत्माकी उन्नति गिनी जाती है।
समाधानः- बाह्य संयोग प्राप्त करना, पैसे मिलना, ये मिलना, दूसरा सब मिलना वह पुण्य-पापके कारण है। परन्तु अन्दरमें जो राग-द्वेष होते हैं, संकल्प-विकल्प (होते हैं), वह कर्म नहीं करवाते। यदि कर्म ही करवाते हों... उसमें कर्म निमित्त है। यदि राग-द्वेष कर्म करे ऐसा हो तो स्वयं पराधीन हो गया। तो किसीको हम ऐसा नहीं कह सकते कि तू राग मत करना, तू द्वेष मत करना। तो उपदेश कैसे दिया जाय कि तू ऐसे दोष मत कर। तू यहाँसे वापस मुड जा, तू ऐसा मत कर। ऐसा क्यों कहनेमें आता है? कि स्वयं कर सकता है और वापस मुडता है। इसलिये पुरुषार्थमें स्वयं स्वतंत्र है। उसमें स्वयंके जो परिणाम होते हैं, वह परिणाम बदलनमें स्वयं स्वतंत्र है। उसमें कर्म निमित्त है। परन्तु परिणाम कैसे बदलना वह अपने हाथकी बात है।
परन्तु बाह्य उदय जो आये, शरीरमें रोग आया, कोई अशाता वेदनीय आयी, धन मिले, न मिले, वह सब स्वयं बदल नहीं सकता। किसीको अच्छा धंधा मिले, किसीको न मिले, वह सब स्वयं बदल नहीं सकता। परन्तु अपने भावको स्वयं बदल सकता है। राग-द्वेष कितना करना और कैसे करना, वह स्वयं बदल सकता है। राग-द्वेषको जैसे बदल सकता है कि स्वयं शान्ति रखनी, चाहे जैसे संयोग आये तो आकुलता नहीं करनी, खेद नहीं करना, वह जैसे बदल सकता है, वैसे स्वयं अपने स्वभावको पहिचानना, परसे भिन्नता करनी, आत्मामें जाना, वह सब स्वतंत्ररूपसे स्वयं कर सकता है। भाव बदल सकता है। परन्तु बाहरकी नहीं कर सकता। बाहरका सब पुण्याधीन है। लेकिन राग-द्वेष पलटकर अंतरमें जाना, वह (करनेमें) स्वयं स्वाधीन है।
यदि राग-द्वेष भी पलट न सके तो-तो जीव एकदम पराधीन हो गया। राग कर्म करावे, द्वेष कर्म करावे, अब मैं क्या करुँ? मुझसे कुछ नहीं हो सकता। तो उपदेश व्यर्थ जाता है। आचार्य ऐसा कहते हैं, तू राग-द्वेष मत कर, तू विकल्प मत कर, तू शान्ति रख। वह सब उपदेश व्यर्थ है। स्वयं बदल सकता है, शान्ति रख सकता है। कर्म ही करवाता हो तो उपदेश क्यों? इसलिये कर्म अपने भावको नहीं कर सकता। राग-द्वेषमें स्वयं जुडता है और बदलता भी स्वयं है। वह अपने हाथकी बात है। स्वभावको पहिचानना, उसका पुरुषार्थ करना उसके लिये आत्मा स्वतंत्र है।
मुमुक्षुः- मतलब कर्मका बन्धन आत्माको उस जातका है ही नहीं?
समाधानः- कर्मका बन्धन तो है, बन्धन है। उसे कर्मका बन्धन, आठ प्रकारके कर्म जीवको बन्धते हैं। ज्ञानको रोकनेवाले, दर्शनको रोकनेवाले, मोहनीयमें निमित्त हो,