Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 1108 of 1906

 

ट्रेक-

१७३

२५५

मोहमें निमित्त हो, ये रोग आये, पैसे मिले ऐसे आठ प्रकारके कर्म हैं। परन्तु वह अपने भावको नहीं बदलते। अपने भाव जो राग-द्वेष हो, उसमें निमित्त हैं। लेकिन भाव करता है स्वयं। पुरुषार्थसे बदल सकता है। उतना जीव उसमें स्वतंत्र है।

मुमुक्षुः- हो सके तब तक कर्म नहीं बान्धना ऐसा जो कहते हैं, वह वस्तु...?

समाधानः- हाँ, कर्मका बन्धन जब तक स्वयं राग और द्वेष, कषाय होते हैं, तब तक कर्मका बन्धन खडा ही है।

मुमुक्षुः- उतना अपने आत्माको साक्षात करनेमें समय लगता है।

समाधानः- हाँ, बीचमें समय लगता है। जब तक उसमें रुका है, तब तक समय लगता है। इसीलिये गुरु और आचार्य कहते हैं कि तू पुरुषार्थ करके तेरी ओर जा, तू उसका भेदज्ञान कर। ये राग तेरा स्वरूप नहीं है, ये द्वेष तेरा स्वरूप नहीं है। तू उससे भिन्न है। तू जाननेवाला है। उसका तू ज्ञाता हो जा, साक्षी हो जा। वह तेरा स्वरूप नहीं है। तु पुरुषार्थ कर। इसलिये उसके जो विकल्प हैं, वह शान्त होते हैं। उसका भेदज्ञान करके आगे बढे। अभी छूट नहीं सकते। पहले उससे भेदज्ञान करता है, स्वभाव पहिचानता है कि यह मेरा स्वभाव है और ये सब कषाय-क्रोध, मानादि वह भिन्न हैं। मैं उनसे भिन्न हूँ। ऐसे भेदज्ञान करता है।

फिर धीरे-धीरे पुरुषार्थ करता हुआ, उसमें लीनता करते-करते स्वानुभूतिकी उग्रता करता है। अतः धीरे-धीरे पहले तो उसे सम्यग्दर्शन होता है। फिर उसे मुनिदशा आती है। स्वानुभूति बढती है इसलिये मुनिदशा आती है। घरबार छोडकर अकेले आत्मामें रहता है। क्षण-क्षणमें आत्माकी स्वानुभूतिमें रहता है। ऐसा करते-करते जब उसे केवलज्ञान होता है तब पूर्णता होती है। फिर सर्व कमाका क्षय हो जाता है, वीतरागी दशा होती है।

लेकिन अभी गृहस्थाश्रममें तो वह भेदज्ञान करता है। ये जो कषाय हैं, वह मेरा स्वरूप नहीं है। मैं उससे भिन्न चैतन्य हूँ। मैं निर्मल स्वभावी शुद्धात्मा हूँ। ऐसा करके स्वयं अपना ज्ञान करके उस ओर झुकता है।

मुमुक्षुः- संसारमें रहकर इस प्रकारका आत्म साक्षात्कार अथवा इस ओरकी मेहनत हो सकती है?

समाधानः- हाँ, हो सकती है।

मुमुक्षुः- उसके लिये ये सब छोडना चाहिये?

समाधानः- नहीं, बाहरका छोडना चाहिये, ऐसा नहीं है। बाहरका कब छूट जाय? कि जब उसे मुनिदशा आती है न, यथार्थ मुनिदशा आये तब छूट जाय। पहले उसे यथार्थ ज्ञान हो, आत्माको पहिचाने, उसमें एकाग्रता हो, वह सब गृहस्थाश्रममें हो सकता है। उसकी रुचि बदल सकता है। भाव पलटना अपने हाथकी बात है। बाहरका गृहस्थाश्रम