अमृत वाणी (भाग-४)
२५६ हो तो भी अंतरकी रुचि बदल देनी कि ये जो राग और द्वेष और अनेक जातके जो विकल्प आते हैं, वह आकुलता मेरा स्वरूप नहीं है, मैं उससे भिन्न हूँ। ऐसे गृहस्थाश्रममें इतना करके अपने स्वभावको पहिचाने। मैं यह चैतन्य हूँ, इसमें आनन्द है, इसमें नहीं है। उसका भेदज्ञान करके विकल्प तोडकर स्वानुभूति कर सके ऐसा गृहस्थाश्रममें कर सकता है।
फिर स्वानुभूति बढते-बढते उसे त्याग हो जाता है। स्वानुभूति गृहस्थाश्रममें कर सकता है। अंतरसे न्यारा हो जाता है। चक्रवर्ती थे तो गृहस्थाश्रममें रहकर आत्माकी स्वानुभूति करते थे। क्षणमात्र आत्माका ध्यान हो जाय ऐसा गृहस्थाश्रममें उसको हो सकता है।
प्रशममूर्ति भगवती मातनो जय हो!