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लगे। उसकी प्रतीत नहीं, फिर अस्थिरतामें अमुक प्रकारसे रहे, लेकिन उसकी प्रतीतमें तो ऐसा ही होता है कि यह सुख नहीं है, ये तो आकुलता है। यह मेरा स्वभाव नहीं है। प्रतीत तो ऐसी (होती है)। प्रतीतके साथ अमुक प्रकारसे उसे लगे कि यह सुख नहीं है, आकुलता है।
मुमुक्षुः- यदि ऐसा न हो तो मार्ग मिले, नहीं मिले ऐसा कोई सम्बन्ध है?
समाधानः- हाँ। उसमें उसे रुचि लगे, विभावमें अच्छा लगे तो उसे आत्मा- ओरकी रुचि नहीं है और विभावकी रुचि है। ऐसा उसका अर्थ है। जीव अनन्त कालसे कहीं न कहीं अटका है। मुनिपना लिया या कुछ भी किया, तो भी गहराईमें कहीं शुभभावमें रुचि रह जाती है। रुचि कोई शुभमें अटक जाती है। इसलिये अपनी ओर स्वयं जाता नहीं और आत्माकी निर्विकल्प दशाको प्राप्त नहीं कर सकता। वह कहीं पर अटक जाता है। गहराईमें मीठास लगती है इसलिये।
शुभभावमें, शुभके फलमें, कहीं भी अन्दर गहराईमें शुभमें रुक जाता है। उसे रुचि लगती है, उसमें अटकना ठीक लगता है। अपनी ओर जानेकी जो रुचि होनी चाहिये वह होती नहीं। मार्ग तो एक ही है। उसकी ओर रुचि लगनी ही नहीं चाहिये। फिर उग्र या मन्द वह अलग बात है, लेकिन उसकी प्रतीतमें तो ऐसा बल आ जाय कि रुचि न लगे। उसे रुचि अपनी ओर जाय।
मुमुक्षुः- चलते परिणमनमें वेदनमें दुःख लगे?
समाधानः- हाँ, उसे वेदनमें भी दुःख लगता है। प्रतीत ऐसी हुयी है, इसलिये वेदनमें अमुक प्रकारसे तो लगे। कितनी उग्रतासे लगे वह उसके पुरुषार्थकी उग्रता अनुसार (लगता है)। परन्तु अमुक प्रकारसे तो उसे लगता है। प्रतीतके साथ उसे ऐसा बल होता है कि इसमें कहीं सुख नहीं है। ऐसा तो उसे लगता है। जो शान्ति चाहिये वह इसमें कहीं नहीं है। यह सब अशान्त है। अंतरमें तो ऐसी उसे एक जातकी खटक अन्दर हो जाय कि इसमें कहीं शान्ति नहीं है, शान्ति अंतरमें है।
मुमुक्षुः- बात तो सुनते हैं, फिर भी वेदनमें दुःख नहीं लगता है, इसका क्या कारण है?
समाधानः- वेदनमें नहीं लगता है तो अभी अन्दरमें कहीं एकत्वबुद्धि है न इसलिये। एकत्वबुद्धि है इसलिये। यथार्थ प्रतीति हो तो अंतरमें उसे लगे बिना रहे नहीं। परिणति भिन्न पडकर हो तो। उसे ऊपर-ऊपरसे होता है इसीलिये वह, कुछ करुँ, कुछ यह करुँ, आत्मामेंसे कुछ प्रगट हो, ऐसा उसे ऊपर-ऊपरसे तो होता है कि ये कोई सुख नहीं है।
अंतरमेंसे जो होना चाहिये, एकत्वबुद्धि टूटकर अंतरमेंसे नहीं होता है। उसे पकडमें