२६० नहीं आता है कि इसमें दुःख है, कहाँ कहीं सुख है। कुछ करना तो चाहता है कि कुछ करुँ। यह कोई सुख नहीं है। ऐसा अप्रगटरूपसे तो होता है। ये कोई सुख नहीं है। कहाँ सुख है और कहाँ नहीं है, यह मालूम नहीं। परन्तु यथार्थ प्रतीति हो तो उसे अन्दर लगे बिना रहे नहीं। ये सब दुःख है और सुख अंतरमें है।
मुमुक्षुः- वैसे तो पकडमें ही नहीं आता।
समाधानः- उसे पकडमे नहीं आता। सुख प्राप्त करनेका प्रयत्न करता है। सुख यहाँसे लूँ, यहाँसे लूँ, यहाँसे लूँ। अंतरमें पकडमें नहीं आता, सुख कहाँ है और दुःख कहाँ है।
मुमुक्षुः- प्रथम भेदज्ञान देहादिसे करना या रागादिसे करना?
समाधानः- सच्चा भेदज्ञान तो अंतरमेंसे जो रागादिसे होता है वह सच्चा भेदज्ञान है। परन्तु उसमें क्रममें ऐसा आये कि पहले शरीरसे भेदज्ञान और बादमें रागादिसे भेदज्ञान। लेकिन वह दोनों एकसाथ ही होता है। वास्तविक भेदज्ञान उसीका नाम कि रागादिसे भेदज्ञान हो। इस शरीरसे भेदज्ञान हो वह तो स्थूल है, अन्दर रागादिसे हो वही वास्तवमें सच्चा भेदज्ञान है।
लेकिन अभी स्थूलतासे भी नहीं हुआ तो रागादिसे कहाँ-से होगा? इसलिये पहले स्थूलतासे करवाते हैं। यह शरीर तो उसे दिखता है, शरीरके साथ एकत्वबुद्धि है कि शरीर मैं हूँ। शरीरके साथ एकमेक हो रहा है। शरीरसे तो मैं भिन्न हूँ। यह तो जड है। वह तो कुछ जानता नहीं, इसलिये पहले उससे भिन्न पडे।
मुमुक्षुः- विचारमें लेना आसान पडे।
समाधानः- विचारमें लेता है। शरीरसे भिन्न पडता है, बादमें रागादिसे भिन्नता करता है।
मुमुक्षुः- माताजी! रागादिसे भिन्न पडनेका प्रयोग क्या? क्योंकि अनुभव हुआ नहीं है, तो अनुभव कैसे हो? वह कैसा स्वादवाला है, राग तो आकुलतारूप है, उसका तो ख्याल आता है, परन्तु वह तो कभी स्वादमें आया नहीं। तो उन दोनोंकी सन्धि कैसे (मालूम पडे)?
समाधानः- उसके ज्ञानस्वभावको पहिचानना। ज्ञानस्वभाव तो ख्यालमें आये ऐसा है। ज्ञानस्वभाव है वह शान्तिसे भरा हुआ, ज्ञानानन्द स्वभाव है उसे लक्ष्यमें लेना। आनन्दका अनुभव भले नहीं है, परन्तु उसे प्रतीतमें लेना। विचार करके प्रतीतमें आये ऐसा है वह आत्मा। ज्ञानस्वभावसे प्रतीतमें लेने जैसा है।
गुरुदेव बताते हैं, शास्त्रमें आता है। उसके अमुक लक्षणसे पहिचानमें आता है। ज्ञानस्वभाव लक्षणसे पहिचाने। लक्षणसे लक्ष्यमें आये ऐसा है कि ये रागादि है और