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यह उसका जाननेवाला लक्ष्यमें आये ऐसा है। राग रागको जानता नहीं, जाननेवाला अन्दर भिन्न है। भिन्न जाननेवाला है वह शाश्वत है। भिन्न जाननेवाला है वह शाश्वत है। रागकी सब पर्यायें चली जाती हैं और जाननेवाला ज्योंका त्यों ही खडा रहता है। ज्योंका त्यों खडे रहनेवाला है वह मैं हूँ।
बचपनसे लेकर अभी तक सब रागादि चले गये और जाननेवाला खडा है। जो जाननेवाला खडा है वह मैं हूँ। जाननेवालेको भिन्न करे। जो-जो राग, विकल्प आये उसे क्षण-क्षणमें भिन्न करे। उतना उसका प्रयत्न हो, भेदज्ञानका अभ्यास उग्र करे तो क्षण-क्षणमें भिन्न करनेका अभ्यास हो। बुद्धिसे एक बार भिन्न किया और फिर ऐसे ही रह जाय तो अभी उसके अभ्यासकी क्षति है। क्षण-क्षणमें भिन्न करे, उसका अभ्यास वैसे ही मौजूद रखे तो उसे फिर सहज दशा होनेका अवसर आये। पहले तो ज्ञानसे प्रतीतमें आता है।
समाधानः- .. यहाँ गुरुदेव विराजे वह कुछ अलग (ही था)। बाहरगाँवसे कोई आये तो ऐसा कहते हैं कि गुरुदेव मानों साक्षात आकर वाणी बरसाते हो ऐसा लगता है। आँख बन्द करके बैठे हो तो ऐसा लगता है।
... पुरुषार्थपूर्वकका क्रमबद्ध होता है। क्रमबद्ध हो, जो होनेवाला है वह हो, परन्तु अन्दर जो अपने भाव बदलना, भावना करनी, पुरुषार्थ करना, भेदज्ञान करना, सम्यग्दर्शन (प्रगट करना), वह सब पुरुषार्थपूर्वक क्रमबद्ध होता है। क्रमबद्ध यानी जैसे होनेवाला है वैसे होगा, ऐसे नहीं। पुरुषार्थ साथमें होता है, क्रमबद्धके साथ पुरुषार्थ, स्वभाव, काल आदि सब हो, उसके साथ पुरुषार्थ होता है। वह क्रमबद्ध पुरुषार्थपूर्वक होता है। जिसे पुरुषार्थ लक्ष्यमें नहीं है, उसका क्रमबद्ध ऐसा ही होता है। और जिसे पुरुषार्थ अन्दर रुचता है उसीका क्रमबद्ध मोक्ष-ओरका होता है। मुक्ति ओरका क्रमबद्ध उसीका होता है कि जिसे अन्दर पुरुषार्थ रुचता है। जिसे पुरुषार्थकी ओर लक्ष्य नहीं है, उसे संसार-ओरका क्रमबद्ध है। परन्तु जिसने उसकी दृष्टि की कि आत्मा ज्ञायक है। ऐसी पुरुषार्थपूर्वककी जिसकी दृष्टि है, उसीका क्रमबद्ध (यथार्थ है)। पुरुषार्थपूर्वकका क्रमबद्ध, वह क्रमबद्ध सच्चा है।
मुमुक्षुः- साथमें पुरुषार्थ करना पडे।
समाधानः- हाँ, पुरुषार्थ तो साथमें ही होता है। क्रमबद्धके साथ पुरुषार्थ होता है। पुरुषार्थपूर्वक क्रमबद्ध होता है। सब भाव साथमें होते हैं। उसे अमुक प्रकारका क्षयोपशम होता है, उसे स्वभाव आदि पाँच लब्धियाँ आती हैं न? उसमें साथमें पुरुषार्थ होता है। देशनालब्धि होती है। अन्दरसे गुरुदेवकी देशना ग्रहण हो, पुरुषार्थ, स्वभाव आदि सब साथमें होता है। विशुद्धिलब्धि। लब्धि हो उसमें पुरुषार्थ साथमें है। अकेला