२६२ क्रमबद्ध नहीं है। क्रमबद्धके साथ पुरुषार्थ होता है। .. क्रमबद्ध है, परन्तु अन्दर अपने भाव पलटना, उसमें साथमें पुरुषार्थ होता है।
मुमुक्षुः- बाहरमें कुछ भी हुआ हो, अन्दर समाधान हो जाय कि जिस काल नुकसान होनेवाला था या जो होनेवाला था वह हो गया।
समाधानः- जो होनेवाला हो वह होता है।
मुमुक्षुः- अब पुनः क्रोध करके नये कर्म बाँधना, उसके बजाय...
समाधानः- जो होता है क्रमबद्ध होता है।
मुमुक्षुः- ध्यान यानी चिंतवन। खास तो यह पूछना था कि ध्यान कैसे करना? बार-बार वही प्रश्न आकर खडा रहता है। जितना विकल्पोंसे दूर होना चाहिये, उतना हुआ नहीं जाता। इतने विकल्प आते हैं, जैसा हमारा जीवन है उस अनुसार। पूरी प्रोसेस एकदम शान्तिसे.. ऐसा कहें कि क्रमसे आगे बढ सके वैसे। धीरे-धीरे करके हम अन्दर ऊतर सके। और रास्ता वही है, ये तो ख्यालमें है कि ध्यानके सिवा छूटकारा नहीं है।
समाधानः- परन्तु पहले तो भेदज्ञान होना चाहिये न। भेदज्ञान हो, यथार्थ भेदज्ञान हो बादमें यथार्थ ध्यान हो। एकाग्रता कब हो? कि मूल वस्तुको पकडे, ग्रहण करे कि मैं जाननेवाला ज्ञायक हूँ, मैं चैतन्यद्रव्य ज्ञायक हूँ, उसका अस्तित्व अंतरसे ग्रहण करे। ऊपर-ऊपरसे बुद्धिसे ग्रहण करे, लेकिन अन्दर उसकी परिणतिमेंसे ग्रहण करना चाहिये, उसका अस्तित्व ग्रहण करे। उसकी श्रद्धा बराबर यथार्थ अंतरसे हो तो उसमें एकाग्र हो। मूल वस्तुको ग्रहण किये बिना चित्त कहाँ स्थिर होगा? चित्त तो विकल्प.. विकल्प...
वस्तु जो स्थिर स्वरूप ज्ञायक स्वरूप वस्तु है उसे ग्रहण करे तो उसमें स्थिर हो, तो स्थिर हो। पहले मैं चैतन्यवस्तु-एक पदार्थ हूँ। जैसे ये सब पदार्थ दिखते हैं, वैसे चैतन्य भी एक पदार्थ है। उसमें अनन्त गुण और अनन्त शक्तियाँ भरी हैं, ऐसा चैतन्यपदार्थ है। उस पदार्थको पहले ग्रहण करे तो उसमें ध्यान हो। इसलिये प्रथम भेदज्ञान करे, ज्ञान करे।
शरीरके साथ एकत्वबुद्धि हो रही है। शरीर सो मैं और मैं सो शरीर। विकल्प सो मैं और मैं सो विकल्प। उसमें भिन्न कौन है? उस भिन्नका अस्तित्व कहीं दिखाई नहीं देता। अतः भिन्न अस्तित्वको पहले ग्रहण करना चाहिये। उसकी बुद्धिमें यथार्थ ग्रहण करे तो यथार्थ ध्यान हो। इसलिये पहले भेदज्ञान करनेकी जरूरत है कि क्षण- क्षणमें जो विकल्प आते हैं, वह विकल्प मेरा स्वरूप नहीं है। मेरा स्वरूप तो जाननेवाला, अन्दर जो जाननेवालाका अस्तित्व है वह मैं हूँ। उस जाननेवालाका अस्तित्व ग्रहण