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करनेके बाद उसमें ध्यान हो।
उसकी यथार्थ रुचि हो तो वह ग्रहण होता है। रुचि बाहर हो, बाहरकी महिमा लगे (तो ध्यान हो नहीं सकता)। अन्दर चैतन्यमें महिमा लगे कि चैतन्य ही सर्वस्व है। और कुछ सारभूत नहीं है। ऐसे अन्दर यथार्थ ग्रहण करे तो ही उसमें ध्यान हो। वस्तुका स्वरूप ही ऐसा है।
पानी स्वयं स्वभावसे निर्मल है। उसे कीचडके कारण मलिनता हुई। उसमें औषधि डाले तो उसकी निर्मलता भिन्न पडे और वह कीचड भिन्न पड जाय। वैसे स्वभावसे आत्मा निर्मल है। अनादिसे एक पदार्थ (है)। जो पदार्थ हो वह पदार्थ कहीं स्वयं स्वभावसे मलिन नहीं होता। लेकिन उसमें मलिनता कीचडके कारण अर्थात विभावके कारण आयी है।
वैसे उसकी दृष्टि यथार्थ (करनी चाहिये)। जैसे औषधिसे पानी निर्मल होता है, वैसे स्वयं ज्ञानरूप औषधि द्वारा अपना स्वभाव जो निर्मल है, उसे निर्मलताको ग्रहण करे तो उसमेंसे निर्मलता प्रगट हो। उसे भेदज्ञान करना चाहिये। पहले यथार्थ ज्ञान करे तो यथार्थ ध्यान हो।
मुमुक्षुः- भेदज्ञान करना चाहिये, परन्तु भेदज्ञान करना कैसे?
समाधानः- उसे पहले तो यथार्थ रुचि होनी चाहिये, तो भेदज्ञान हो। उसीमें चला जाता है, अनन्त कालसे विकल्पमें ही चला जाता है। परन्तु उसकी रुचि यथार्थ हो तो भेदज्ञान हो। उसका ज्ञान यथार्थ करना चाहिये। मैं कौन (हूँ)? वस्तु आत्मा अनादिअनन्त (है)। मैं कौन हूँ, मेरा क्या स्वभाव है, उसका स्वभाव क्या है, उसमें जो अनेक जातकी अवस्थाएँ होती हैं, वह क्या है? उसे यथार्थ समझना चाहिये। उसकी रुचि यथार्थ होनी चाहिये। ऐसी लगन लगे अंतरमेंसे तो भेदज्ञान हो। रात और दिन उसे आत्माके अलावा कहीं चैन न पडे। मेरा आत्मा मुझे कैसे प्रगट हो? मुझे स्वानुभूति- आत्माका साक्षात्कार कैसे हो? ऐसी लगन अन्दरसे लगे तो भेदज्ञान हो। उसकी लगन लगनी चाहिये।
फिर तो स्वभावमेंसे स्वभाव प्रगट होता है। ये जो विकल्प हैं वह तो सब विभाव है। विभावमेंसे स्वभाव नहीं आता है, स्वभावमेंसे स्वभाव आता है। जैसे लोहेमेंसे लोहा ही हो और सुवर्णमेंसे सुवर्ण ही हो। वैसे चैतन्यस्वभावमेंसे स्वभाव प्रगट हो। ये विभावमेंसे तो विभाव ही प्रगट होता है। इसलिये अपना स्वभाव ग्रहण कर लेना। ऐसी रुचि प्रगट करनी चाहिये।
पहले ऐसी रुचि करे, उसका भेदज्ञान करे क्षण-क्षणमें कि यह मैं नहीं हूँ, मेरा चैतन्यस्वरूप भिन्न है। ऐसे बारंबार करे तो उसमें एकाग्रता होती है। नहीं तो समझे