Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 1119 of 1906

 

अमृत वाणी (भाग-४)

२६६ कहना भी नहीं पडे कि आप इसके लिये प्रवृत्त हों। ये बात लंबाती रहती है, बरसों, भव, ऐसा मुझे लगता है।

समाधानः- परन्तु इतना तो स्वयंको लगे न कि ये कुछ सारभूत नहीं लगता। आस्तिक्यतामें स्वयंको उतना लगे कि ये कुछ सार(भूत नहीं है), इसमें कहीं सुख नहीं दिखता है। ये बाहरका चाहे जितना करते हैं संतोष नहीं होता। तृप्ति नहीं होती है। जीव व्यर्थ प्रयत्न करता रहता है कि यहाँसे सुख मिलेगा, यहाँसे सुख मिलेगा, यहाँसे सुख मिलेगा। ऐसे व्यर्थ प्रयत्न करता है। संतोष नहीं होता। संतोष नहीं हो रहा है ये यह बताता है कि सुखस्वरूप वस्तु कोई अंतरमें अलग है। इसलिये संतोष नहीं हो रहा है।

जो संतोषका धाम है, जिसमें तृप्ति होती है और जो सुखका धाम प्रगट होनेके बाद दूसरी कोई इच्छा ही नहीं होती, ऐसी कोई वस्तु अंतरमें रही है। इसलिये बाहरमें कहीं भी संतोष नहीं होता। इसलिये जीव इच्छा करता है कि कुछ दूसरा है। ऐसी इच्छा करता है। लेकिन वह प्रगट कब हो? कि स्वयं पुरुषार्थ करे तब। पहलेसे किसीको झलक नहीं दिखती।

लेकिन जिन महापुरुषोंने प्रगट किया है, वे उसे बताते हैं कि तू ये कर और हम उसका अनुभव करके तुझे कहते हैं कि उसकी स्वानुभूति होती है, साक्षात्कार होता है, आत्मा सुखका धाम है। उसका विश्वास करता है। उसका विश्वास तो करना चाहिये। माँ-बाप उसे बताये तो उसका पुत्र जैसे विश्वास करता है कि इस रास्ते पर चल। वैसे वे बताते हैं तो अपनी बुद्धिसे थोडा तो विचार करे। दुकान पर कोई माल लेना हो तो वह आदमी पूरी दुकान नहीं दिखाता। लेकिन उसके अमुक लक्षण परसे पहिचाने कि इसकी दुकान अच्छी लगती है। ऐसे लक्षणसे पहिचाने।

ऐसे लक्षणसे पहिचान लेना चाहिये। पहलेसे सब (दिखाई नहीं देता)। जो महापुरुष हों वे उनकी स्वानुभूति बाहर नहीं दिखाते। परन्तु उसके लक्षण बताते हैं। उस लक्षणसे विचार करना। क्योंकि स्वयंको सुख चाहिये, उतनी तैयारी तो चाहिये कि बाहर कहीं सुख नहीं है, संतोष नहीं है। मुझे कुछ दूसरा चाहिये। उतनी जिज्ञासा तो होनी चाहिये। फिर बताये उसका विश्वास करके, स्वयं उस मार्ग पर पुरुषार्थ करना चाहिये, तो प्रगट हो। इस तरह झलक नहीं है तो विश्वाससे (आगे बढे)। सब विश्वास नहीं, लेकिन बुद्धिसे विचार करे, परीक्षा करे कि, नहीं, यह वस्तु सच्ची है।

मुमुक्षुः- लेकिन उस विश्वासमें तो कितनी बार भटक जाते हैं। किसी भी गुरुके पीछे बरसों निकल जाय, फिर लगे कि ये बराबर नहीं है, ये बराबर नहीं। ऐसे तो एक प्रकारका भटकना ही हो जाता है। और हालत ऐसी त्रिशंकु जैसी हो जाती है।