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समाधानः- ब्रह्माण्डमें इस पृथ्वी पर है। अभी जो पृथ्वीका गोला कहते हैं, ऐसा नहीं है। शास्त्रमें वह पृथ्वी (ऐसे नहीं है)। यह जम्बू द्वीप है। उस द्वीपमें एक महाविदेह क्षेत्र है, एक भरत क्षेत्र है, एक ऐरावत क्षेत्र है। उसमें महाविदेह क्षेत्र और भरत क्षेत्रके बीच थोडे दूसरे क्षेत्र-जुगलियाका क्षेत्र है। ऐसे क्षेत्र हैं। बीचमें बडे-बडे पर्वत हैं। हिमवन्त, हरिवत, रमकवत ऐसे बडे-बडे पर्वत हैं। उसके बाद महाविदेह क्षेत्र है। बीचमें मेरु पर्वत है। उसके बाद महाविदेह क्षेत्र आता है।
मुमुक्षुः- जैसे ये रोकेट अवकाशमें जाता है, तो वह क्षेत्र तो हमे दिखता है न?
समाधानः- .. दृष्टिसे देख सकते हैं। ये क्षेत्र स्थूल है। जिसके हृदयमें आर्यता नहीं है, जो अनार्यवृत्ति है, वह ऐसे महान क्षेत्रोंको देख नहीं सकते। जहाँ भगवान विराजते हैं... जो अनार्यवृत्ति है, जो हिंसामें पडे हैं, आर्यवृत्ति नहीं है। उसे यह चर्मचक्षुसे दिखाई नहीं देता। जिसकी अंतरदृष्टि निर्मल होती है, वही देख सकता है।
मुमुक्षुः- बहिन सब होता है, लेकिन यह वृत्ति है न वह बन्दर जैसी है। बैठती ही नहीं। पाँच मिनिट बैठे और नीचे टेलिफोन आ गया, भागे। आप जैसा कहते हो न कि पुरुषार्थ (करना)। पुरुषार्थ करने भी बैठते हैं। लेकिन बीचमें ऐसा कुछ आ जाता है कि वृत्ति नहीं टिकती, स्थिरता नहीं रहती, दृष्टि नहीं टिकती। ऐसे स्थलमें आये तो ऐसा लगे कि घरमें बच्चे क्या करते होंगे? विचार करनेका प्रश्न ही नहीं है, फिर भी ऐसा विचार आ जाता है। पुरुषार्थ करने पर भी यह वृत्ति है वह बहुत परेशान करती है। उसका कोई रास्ता?
समाधानः- अनादिका राग पडा है। स्वयंको रागका अभ्यास हो गया है। अन्दर सब राग, द्वेषके संस्कार पडे हैं। गाढ हो गये हैं। उसमें मुंबईका जीवन और उसमें उतनी प्रवृत्ति, धमाल, उसमें कहीं शान्ति नहीं। और उतना राग और अन्दर सब एकत्वबुद्धि, रागके संस्कार इतने दृढ हो गये हैं। उसमें यह संस्कार इतने दृढ हो तो वह कम हो। यह संस्कार।
विचार करना, देवका, गुरुका ऐसे सब संस्कार जीवनमें हो तो वह दूसरे संस्कार कम हो जाय। बार-बार भगवानका स्मरण हो, मन्दिरका स्मरण हो, शास्त्र याद आये, गुरु यास आये, ऐसे संस्कार हो। आत्मा याद आये ऐसे संस्कार हो उसे वह दूसरे संस्कार कम हो जाते हैं। इसी संस्कारमें रचापचा है इसलिये वही संस्कार आते रहते हैं।
यहाँ देखो तो यहाँ सबके जीवनमें टेप, गुरु, मन्दिर और आत्माके विकल्प। यह संस्कार एकदम भिन्न और वह संस्कार एकदम भिन्न। इसलिये वह संस्कार दृढ हो गये हैं और उसमें स्वयंको बलपूर्वक पुरुषार्थ करना, उन सबके बीच रहकर पुरुषार्थ करना,