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जीवकी उतनी शक्ति-उपादान नहीं है। कोई करे तो पुरुषार्थसे कर सके। बाकी साधारण जीव तो सत्संगमें रहे, सच्चे अच्छे माहोलमें रहे तो उसे पुरुषार्थ करना सहज-सहज होता है। मन्द पुरुषार्थी हो तो उसे उग्रता करनी पडती है। ऐसे संयोंगोंके बीच अत्यंत उग्रता करे तो स्वयं दृढ रह सकता है। अपने पुरुषार्थकी क्षति है। जहाँ होता है वहाँ पुरुषार्थसे होता है। लेकिन सत्संग हो उसमें फर्क पडता है। पुरुषार्थका बल होना चाहिये न। पुरुषार्थका बल हो तो हो सकता है।
जो सच्चा मुक्तिका मार्ग दर्शाते हो, सच्चे देव-गुरु.. जो देव अंतरमें केवलज्ञान प्राप्त करके कुछ विकल्प नहीं है और पूर्ण निर्मलता प्रगट की वह देव है। जिसे किसी जातका राग या कोई विकल्प नहीं है। आत्मामें समा गये, बस। समा गये और अपने अनन्त गुणोंको प्रगट किये, वे देव हैं। और ऐसे आत्माकी जो बारंबार स्वानुभूति कर रहे हैं, वे गुरु हैं और ऐसा मार्ग बताये वह गुरु है।
मुमुक्षुः- आज हम ऋषभदादाको मिलकर आये, तो उनको मिलनेसे हमारा मोक्ष हो सकता है?
समाधानः- मिलकर आये ऐसा नहीं..
मुमुक्षुः- उनके दर्शन कर आये, तो उनको माननेसे मोक्ष हो सकता है?
समाधानः- उनके आत्माको पहिचाननेसे मोक्ष होता है। मात्र बाह्य दर्शनसे शुभभाव हुआ या पुण्य बन्धे, पुण्य बन्धे, लेकिन उससे आत्माकी पहिचान नहीं होती। लेकिन उनका आत्मा क्या करता था? उन्होंने क्या प्रगट किया? वह आप समझो तो मोक्ष हो। उनका द्रव्य क्या? उनके गुण क्या? उन्होंने क्या प्रगट किया? उन्होंने कैसा पुरुषार्थ किया? वे किस मार्ग पर चले? वह आप समझो तो हो सकता है। मात्र बाहरसे दर्शन करे तो शुभभाव हो।
मुमुक्षुः- इसमें तो मिलान करनेको कहते हैं। अपने आत्माके साथ भगवानके आत्माका मिलान करना है।
समाधानः- मिलान करनेको कहते हैं। जैसा भगवानका आत्मा है, वैसा मेरा आत्मा है। ऐसे पहिचाने तो मोक्ष हो। भगवानने क्या किया? मेरा वैसा ही स्वभाव है। जैसा भगवानका स्वभाव है, वैसा ही मेरा स्वभाव है। जो भगवानको पहिचाने वह अपने आत्माको अवश्य पहिचानता है। लेकिन भगवानको यथार्थ पहिचाने तो। जो स्वयंको पहिचाने वह भगवानको अवश्य पहिचानता है।
पंचमकालके अन्दर यहाँ गुरुदेव विराजते थे। उन्होंने इतना मार्ग स्पष्ट कर दिया है, सबको अंतरदृष्टि दे दी है कि अंतरमें ही मुक्तिका मार्ग है। चारों ओरसे मोक्ष इतना खुल्ला-स्पष्ट कर दिया है। कितने ही लोग क्रियामें पडे थे कि क्रियासे धर्म होता