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मुमुक्षुः- एकाग्रता ऐसे तो नहीं हो जाती न? बहुत बरसोंका अभ्यास हो, ध्यानका आलंबन हो, बादमें होता है न? बोलनेसे या कहनेसे तो नहीं होता न?
समाधानः- एकाग्रता है वही ध्यान है। उसका उग्र अभ्यास करनेसे होता है। उसकी उग्रता हो तो बहुत जीवोंको अंतर्मुहूर्तमें होता है। किसीको अभ्यास करते-करते बरसों निकल जाते हैं। और किसीको थोडे महिनोंमें हो जाता है। उसका अभ्यास जैसी उग्रता हो उस अनुसार होता है।
मुमुक्षुः- बहिनजी! अभी आपने कहा कि अनुभूतिसे जातिस्मरण होता है। परन्तु जातिस्मरण ज्ञान तो हमने बहुतोंके विषयमें सुना है कि उनको बचपनमें हुआ।
समाधानः- अनुभूतिसे होता है ऐसे नहीं, अनुभूतिसे होता है ऐसे नहीं होता है। अनुभूति नहीं भी हो तो भी जातिस्मरण तो बहुतोंको होता है। बहुतोंको होता है। परन्तु भवका अभाव तो अनुभूतिसे होता है।
मुमुक्षुः- हाँ, वह तो ठीक है।
समाधानः- अनुभूति हो वहाँ यह ज्ञान होता ही है ऐसा नियम नहीं है। अनुभूति नहीं होवे तो भी वह ज्ञान तो बहुतोंको होता है। बहुतोंको होता है। अनुभूतिके साथ वह होता है तो होता है।
मुमुक्षुः- ... वैसे तो हम सब धर्ममें जाय तो ऐसा लगे कि सभी धमामें ...मन हो जाय। कोई दूसरे देरासरमें जायें तो वहाँ भी ढोक देनेका मन हो। .. वहाँ जाये तो वहाँ भी ऐसा होता है। ऐसा होता है कि सत्य क्या है? वह समझमें नहीं आता। जहाँ जाये वहाँ ढोक देनेका मन हो। वैष्णवके मन्दिरमें जायें तो ऐसा हो कि ये भगवान हैं तो इनको भी...
समाधानः- अन्दर नक्की नहीं हुआ हो इसलिये।
मुमुक्षुः- .. सच्चे देव-गुरु-शास्त्र यही है, ऐसा निर्णय नहीं है।
मुमुक्षुः- इसलिये जहाँ भी जाये वहाँ सब भगवान .. लगे इसलिये हर जगह (माथा टिका देते हैं)। उसके लिये करना क्या?
समाधानः- मुक्तिका मार्ग क्या है? आत्माको पहिचाननेका प्रयत्न करना। आत्मा भिन्न है। शरीर तत्त्व भिन्न है और आत्मा भिन्न है। आत्मा जाननेवाला है, आत्मा ज्ञायक है। आत्मामें आनन्द है। ये विभाव विकल्प है वह आत्माका स्वरूप नहीं है। ऐसा आत्माका स्वरूप जो बताते हों और ऐसा भेदज्ञानका मार्ग जो स्पष्ट करके बताते हों, वह देव-गुरु-शास्त्र सच्चे हैं। उन्होंने जैसी साधना की हो, वह देव, वह गुरु और वह शास्त्र सच्चे हैं।
आत्माका स्वरूप पहिचाननेमें जो निमित्त बनते हैं, जो साधनामें निमित्त बने। होता