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(अनन्त कालमें ऐसा) मनुष्य भव मिले, उसमें ऐसे गुरु मिलना महा दुर्लभ है, इस पंचमकालमें सच्चा मार्ग बतानेवाले। मार्ग गुरुदेवने बताया। अंतरमेंसे स्वयं रुचि करके, नक्की करके पुरुषार्थ करने जैसा है।
मुमुक्षुः- गुरुदेवको देखे तो ऐसा हो कि दस साल तक,.. गुरुदेवका स्वास्थ्य तो अपनेसे भी अच्छा है। तो अपने दो-पाँच साल खीँचते हैं, और फिर आरामसे बैठेंगे। ऐसा कर-करके हम रह गये।
समाधानः- जिज्ञासुको ऐसे वादे नहीं होते।
मुमुक्षुः- वही कहता हूँ, उसीमें पीछे रह गये। इसीलिये अभी दुःख होता है।
समाधानः- अब उसका स्मरण, रटन करते रहना, गुरुदेवने बताया उसका।
मुमुक्षुः- वचनामृतमें संस्कारकी बातें बहुत आयी हैं। संस्कार कैसे डले?
समाधानः- बारंबार उसका अभ्यास करते रहना। बारंबार जो गुरुदेवने मार्ग बताया उसका बारंबार चिंतवन, उसका मनन, उसकी महिमा, उसकी लगन, बारंबार। सत्संग, श्रवण, मनन बारंबार (करना)। जैसे छाछमें मक्खन। उसे बिलोते-बिलोते मक्खन बाहर आता है। बारंबार उसका मंथन करते रहना। जो गुरुदेवने बताया उसका।
बारंबार पुरुषार्थ (करना), मैं चैतन्य भिन्न हूँ, यह भिन्न है। परन्तु उसके लिये कितनी तैयारी करनी, बारंबार उसका (प्रयत्न करे)। बाहरके निमित्त देव-गुरु-शास्त्रका सान्निध्य मिले, उनका सत्संग, श्रवण, मनन वह सब बारंबार करते रहना। तो बारंबार उसके संस्कार दृढ हो। रुचिको बारंबार तीव्र हो ऐसा करते रहना। अनादिका अभ्यास है। पुरुषार्थ करके बदलते रहना। बारंबार वह करते रहना। जितना समय मिले उतना करते रहना।
मुमुक्षुः- गुरुदेवकी टेप, यही वांचन, यही करती हूँ। फिर भी मुझे ऐसा लगता है कि... आपके दर्शन करती रहती हूँ।
समाधानः- पुरुषार्थ स्वयंको करनेका है। पुरुषार्थ मन्द है। मार्ग गुरुदेवने बताया उसकी रुचि हो, परन्तु पुरुषार्थ स्वयंको करना है। उसीका अभ्यास करते रहना, बारंबार आत्माको पहिचाननेका। आत्मा ज्ञायक है। प्रतिक्षण उसका चिंतवन करना। गुरुदेवने कहा न? छोटीपीपरको घिसने पर अन्दर.. वैसे आत्माका जो स्वरूप है उसका अभ्यास करते रहना। आत्माका स्वरूप ज्ञायक है, उसे पहिचाननेका प्रयत्न करना। उसकी लगन लगानी।