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जैसे चनेके सेकनेसे उसका स्वाद प्रगट होता है। वैसे बारंबार उसका प्रयास करनेसे प्रगट होता है। इसलिये बारंबार उसका अभ्यास करते रहना। तो प्रगट होता है। पानी स्वभावसे निर्मल है। कीचडसे मलिन हुआ। तो उसमें औषधि डालनेसे वह निर्मल होता है। वैसे आत्माका भेदज्ञान (करनेसे होता है)।
आत्मा तो अनादिअनन्त स्वभावसे द्रव्य स्वरूपसे निर्मल ही है। परन्तु मलिनता विभावके कारण हो गयी है। इसलिये जो विभावपर्याय होती है, वह विभाव भी आत्माका स्वभाव नहीं है। उसका स्वभाव चैतन्यका भिन्न ग्रहण करना। आत्मा ज्ञायक स्वभाव है, उसमें आनन्द है। आदि अनन्त गुणोंसे भरा आत्मा है। उस ओर दृष्टि करनी, उसकी प्रतीत करनी, उसमें लीनता करनेसे वह प्रगट होता है।
जो जिसमें हो उसमेंसे आता है। सुवर्णमेंसे सुवर्ण पर्याय ही होती है। वैसे आत्मामेंसे आत्मा ही प्रगट होता है। विभावमेंसे विभाव होता है। अनादि कालसे शुभाशुभ भावोंकी पर्याय करे तो उसमेंसे जन्म-मरण उत्पन्न होते हैं। आत्माकी शुद्ध निर्मल पर्याय प्रगट करनेसे उसमेंसे शुद्धता ही उत्पन्न होती है। इसलिये बारंबार उसका अभ्यास करनेसे प्रगट होता है।
मैं चैतन्य हूँ, ये विकल्प मेरा स्वरूप नहीं है। ऐसे बारंबार तदरूप परिणति करनेसे, उसमें लीन होनेसे निर्विकल्प दशा होती है और स्वानुभूति होती है। और उसका बारंबार अभ्यास करनेसे चैतन्य जैसा है वह पूर्ण स्वभावसे प्रगट होता है। वह करने जैसा है। वही जन्म-मरण टालनेका उपाय है और वह गुरुदेवने बताया है। अपूर्व उपकार किया है। आत्माकी अपूर्वता गुरुदेवने बतायी है। उसे ग्रहण करने जैसा है।
आत्मा अनादिअनन्त ज्ञायक स्वरूप है। उसमें कोई भेदके विकल्प या आत्मामें अनन्त गुण हैं, परन्तु वह भेद स्वरूप नहीं है। उसके भेदके विकल्पसे भी लक्ष्य दूर करके एक अभेद पर दृष्टि करने जैसी है। ज्ञानमें सब लेना, लेकिन दृष्टि एक आत्मा पर करनेसे (प्रगट होता है)।
जैसे पानीमें कमल भिन्न निर्लेप रहता है। वैसे आत्मा निर्लेप स्वभावी प्रगट होता है। प्रगट होता है तब वह निर्लेप स्वरूप है न, निर्लेपता प्रगट कर सकता है। पुरुषार्थ करनेसे प्रगट होता है। वही जीवनका कर्तव्य है और वही जीवनमें करने जैसा है। आत्मा शाश्वत है और उसमेंसे पर्यायें प्रगट होती है, वह करने जैसा है।
स्वयं ही है। आत्मा जाननेवाला स्वयं ही है। शरीरसे भिन्न आत्मा (है)। शरीरके अन्दर स्वयं भिन्न है। शरीर कुछ जानता नहीं है। अन्दर जाननेवाला है वह आत्मा है। जो जानता रहता है अन्दर वह जाननेवाला आत्मा है। उसमें आनन्द और ज्ञान सब आत्मामें है। ये शरीर कुछ नहीं जानता। अन्दर जाननेवाला आत्मा भिन्न है।