२८४ करनेमें शब्द कम पडे हैं।
समाधानः- स्वानुभूतिका मार्ग बताया वह गुरुदेवने ही बताया है। दूसरा कौन बतानेवाला था? इतने शास्त्रके रहस्य खोले। झाटकियाने सब लिखावटमें लिख लिया। लिखावटमें ले लिया। समझे बिना उसे ठीक पडे वैसा लिख लिया।
समाधानः- आत्मा भिन्न है, शरीर भिन्न है। ऐसी बात करते थे। आत्मामें स्वभावको पहचाननेसे उसमेंसे धर्म होता है। धर्म बाहरमें सब मानते हैं कि इतनी क्रिया करके धर्म होता है। ऐसे धर्म होता है। धर्म आत्माका स्वभाव है, उस स्वभावको पीछाने और स्वभावमेंसे ही आत्माका धर्म प्रगट होता है।
यह शरीर तत्त्व जड तत्त्व है, आत्मा चैतन्य तत्त्व है। उस चैतन्यतत्त्वको पहचानो। वह अपूर्व अनुपम तत्त्व है। उसको पहचाननेसे उसमेंसे धर्म होता है। बाकी अनन्त कालमें सब किया। शुभभावसे पुण्यबन्ध होता है। देवलोक होता है, भवका अभाव तो होता नहीं। भवका अभाव तो आत्माको पीछाननेसे शुद्धात्माको पीछाननेसे होता है। शुभभाव बीचमें आते हैं। आते हैं तो पुण्यबन्ध होता है। परन्तु भवका अभाव आत्माकी स्वानुभूति शुद्धात्माको पीछाननेसे होती है।
उसका भेदज्ञान करना कि यह शरीर मैं नहीं हूँ, शुभाशुभ भावसे भिन्न मैं चैतन्यतत्त्व हूँ। चैतन्यमेंसे स्वभाव धर्म और मुक्तिका मार्ग उसमेंसे होता है। सुवर्णके गहने (सुवणसे बनते हैं), लोहेमेंसे लोहा होता है। ऐसे विभावमेंसे तो विभाव होता है। स्वभावमेंसे स्वभाव प्रगट होता है। आत्माको पहचाननेसे उसमेंसे यह ज्ञान, दर्शन, चारित्र सब उसमेंसे प्रगट होता है।
समाधानः- गुरुदेव यहाँ बहुत साल विराजे। अब तो गुरुदेवका भव बदल गया। चतुर्थ काल हो तो यहाँ देव आते थे। अभी पंचमकालमें देवोंका आना मुश्किल है।
मुमुक्षुः- .. ऐसे जीव होते हैं, ऐसा बताना है।
समाधानः- लायकातवाले जीव होते हैं।
मुमुक्षुः- क्योंकि अब तो मेरा आयुष्य पूर्ण होने आया है। १०२ वर्ष चल रहा है। और पण्डितजी कहते हैं कि १०६ है, १०७में आपको छूट्टी लेनी है। ऐसा पण्डितजी कहते हैं।
समाधानः- यहाँ भाई है तो अच्छा है न।
मुमुक्षुः- अरे..! बहुत अच्छा है। .. भाई है तो अच्छा है न। हम सबको आधार रहे। ...
समाधानः- अपनी भावनासे जाना होता है। ऐसे पुण्य बन्धते हैं इसलिये। ऐसे भावसे पुण्य बन्ध हो तो जाना होता है।