२८८ मात्र क्रियाएँ बहुत बार की है। क्रिया करी, सब त्याग किया, छोड दिया ऐसा जीवने अनेक बार किया। और मुनि बनकर जंगलमें रहा। परन्तु यदि आत्माका ज्ञान नहीं हुआ है तो ऐसी क्रिया करके, शुभभाव करके देवलोक प्राप्त हुआ, बहुत मिला परन्तु भवका अभाव नहीं हुआ।
अतः गुरुदेवने ऐसा मार्ग बताते थे कि तू यथार्थ अपूर्व आत्मा है, उसे पहचान। उसको पहचानकर अन्दर जो चारित्र प्रगट होगा वह यथार्थ अंतरमेंसे होगा। बाह्य क्रिया और बाह्य चारित्र तूने अनन्त बार किया है। और करके नौंवी ग्रैवेयक गया है, देवलोकमें। परन्तु भवका अभाव या आत्माकी प्राप्ति, सम्यग्दर्शन प्राप्त नहीं हुआ। इसलिये तू आत्माको पीछान। अंतरमें सम्यग्दर्शन और ज्ञान भी बाहरसे नहीं आता है। उसके समझनेके लिये देव-गुरु-शास्त्रका सान्निध्य होते हैं, उसके निमित्त होते हैं, परन्तु करना तो स्वयंको पडता है। मात्र बाहरका ज्ञान वह कोई ज्ञान नहीं है, वह तो विशेष जाननेके लिये, शास्त्रज्ञान आत्माको पीछाननेके लिये बीचमें वह शास्त्रज्ञान होता है।
निश्चय तो अंतरमें आत्माको पहचाने, अंतरमें आत्माको भिन्न करके सम्यग्दर्शन (प्रगट करे)। मैं यह चैतन्य हूँ, यह मैं नहीं हूँ, ऐसे स्वयं भेदज्ञान करे, उसका ज्ञान करे। अंतरमें आत्माको पहचाने वह ज्ञान और आत्माकी स्वानुभूति हो वह दर्शन। ऐसे दर्शन और ज्ञान अनन्त कालमें प्राप्त नहीं हुए। इसलिये उसकी मुख्यता रखकर दर्शन, ज्ञान अंतरमेंसे कैसे प्राप्त हो, वह यदि अंतरमेंसे प्राप्त हो वह अपूर्व वस्तु है, तो उसमें चारित्र यथार्थ आता है। और वह चारित्र उसे अंतरमें सहज पुरुषार्थसे ऐसे प्राप्त होता है कि अंतरमें स्वानुभूति ऐसी प्राप्त हो कि क्षण-क्षणमें अंतरमें चला जाय, बाहर रुकना भी उसे मुश्किल हो जाय। फिर उसे गृहस्थाश्रम भी सुहाता नहीं, इसलिये वह मुनि बनकर चला जाता है। इस प्रकार अंतरमें स्वानुभूतिमें बारंबार झुलते-झुलते ऐसी चारित्रदशा प्राप्त होती है। और वही वास्तविक चारित्र है।
वर्तमानमें जो बातें करते हैं, आत्मा कोई अपूर्व है, उसकी प्राप्ति कैसे हो उसकी बातें चलती है। क्योंकि चारित्रदशा बाहरसे क्रियाका त्याग तो अनेक बार हुआ है। परन्तु अंतरमें जो अपूर्वता आत्माकी लगनी चाहिये वह लगी नहीं। इसलिये दर्शन, ज्ञानको मुख्यता की, उसका कारण यह है कि उससे भवका अभाव होता है। फिक्षर चारित्र जो आता है वह यथार्थ चारित्र आता है। मात्र बाहरका चारित्र अनन्त कालमें बहुत बार किया है।
और ये जो दर्शन और ज्ञान है, उसके साथ अमुक जातका चारित्र स्वरूपाचरण तो आता है। जिसे अंतरमें आत्मा रुचे उसे बाहरका रुचता नहीं। उसे अंतरमेंसे विरक्ति आ जाती है। बाहरका सब कार्य करे तो उसका मर्यादित होता है। उसके कषाय आदि