समाधानः- .. शुद्धात्माको कैसे पहचाने, ऐसी अंतर दृष्टि, मैं ज्ञायक चैतन्य हूँ, ऐसे निरंतर उसे लगन लगे तो उसे प्रतिक्षण उसका भेदज्ञान अंतरमेंसे प्रगट हो कि यह विकल्प मैं नहीं हूँ, मैं चैतन्य हूँ, चैतन्य हूँ, ऐसी धारा अंतरमेंसे ज्ञानधारा प्रगट हो तो उसका विकल्प टूटकर, स्वानुभूति हो ऐसी अपूर्व दशा (हो), उसे सम्यग्दर्शन कहनेमें आता है। और उसमें लीनता बढते-बढते स्वरूप रमणता हो तब चारित्रदशा (होती है)। वह अंतरमेंसे प्रगट होती है। बाकी शुभभावरूप हो वह पुण्यबन्ध होता है। लेकिन उससे भवका अभाव नहीं होता। ऐसे गुरुदेवकी वाणीमें बारंबार वह आता था। शास्त्रोंमें भी उसी प्रकारसे आता है। अनन्त जन्म-मरण किये लेकिन उसमें बहुत बार....
आत्मा भिन्न और शरीर भिन्न, दोनों भिन्न तत्त्व हैं, उस तत्त्वको पहचानना। संकल्प- विकल्प हो वह आत्माका स्वभाव नहीं है, सब विभावभाव हैं। उससे भिन्न आत्माका स्वभाव पहचानना वह करनेका है। चैतन्यतत्त्वका स्वभाव भिन्न है, उसे पीछानना। उसके लिये तत्त्व विचार, वांचन, देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा एक आत्माको पीछाननेके लिये (होते हैं)। ध्येय एक होना चाहिये कि मुझे ज्ञायक आत्मा कैसे पहिचानमें आये? ज्ञायकतासे भरा हुआ है। उसमें आनन्दादि अनन्त गुण हैं, उससे पीछाननेका प्रयत्न करना। उसकी लगन, उसकी महिमा, उसका विचार, वांचन सब करने जैसा है।
गुरुदेवकी वाणीमें तो कोई अपूर्वता आती थी। आत्माकी अपूर्वता बताते थे। अनन्त कालमें बाहरका बहुत किया। क्रियाएँ की, ये किया लेकिन आत्माको पहचाना नहीं आत्मा कोई अपूर्व वस्तु है। एक सम्यग्दर्शन जीवने अनन्त कालमें प्राप्त नहीं किया है और जिनवरस्वामी मिले नहीं। अर्थात स्वयंने पीछाना नहीं है। इसलिये मिले वह नहीं मिलनेके बराबर है। एक सम्यग्दर्शन प्राप्त नहीं हुआ है और एक भगवान नहीं मिले हैं। सच्चे देव-गुरु-शास्त्रको जो पीछाने वह स्वयंको पीछाने। स्वयंको पीछाने वह देव-गुरुको पीछानता है। इसलिये चैतन्यको पीछाननेका प्रयत्न करने जैसा है।
आत्मा जाननेवाला तत्त्व है। उसमें सुख, उसमें आनन्द सब है। बाहरमें जो माना है, बाहरमें कुछ नहीं है। बाहरसे आत्मामें आता नहीं। जिसको जो स्वभाव है, उसमेंसे