२९४ प्रगट होता है। ज्ञान ज्ञानमेंसे, आनन्द आनन्द स्वभावमेंसे प्रगट होता है। शुभभाव बीचमें आता है, लेकिन शुभभाव भी पुण्यबन्धका कारण है। शुद्धात्माको पहचाने तो अंतरसे शुद्ध पर्याय प्रगट हो और भवका अभाव हो। जब तक शुद्धात्माको न पीछाने, पूर्णता न हो तब तक शुभभाव आये, परन्तु वह चैतन्यका स्वभाव नहीं है, वह विभावभाव है। इसलिये चैतन्यको भिन्न पीछानना, वही सर्वस्व और वही सारभूत है। उसे पीछानने जैसा है।
मुमुक्षुः- उसके लिये क्या उपाय करना?
समाधानः- उपाय, बस एक ही अंतरमें लगन उसीकी लगानी, उसीकी महिमा। बाहरकी लगन कम करनी। वह एक ही करने जैसा है। जीवनमें सर्वस्व वही है। उसकी श्रद्धा, उसकी प्रतीति गृहस्थाश्रममें हो सकता है। अंतर पहचाननेका प्रयत्न (करना)। उसका भेदज्ञान, उसे भिन्न पीछानना, वह सब हो सकता है।
फिर, विशेष जब भिन्नता हो, भेदज्ञानकी धारा प्रगट हो, स्वानुभूति हो, मुनिदशा तो बादमें आती है। ये तो उसे गृहस्थाश्रममें भेदज्ञान, सच्ची प्रतीति (होती है)। गृहस्थाश्रममें हो तो अंतर दृष्टि करके स्वयं अंतरमेंसे भिन्न कर सकता है। लेकिन उसकी लगन, उतनी रुचि, उतना विचार, अंतरमें मंथन करके निर्णय करे पहचाननेका तो होता है।
जैसे शक्करका स्वभाव मीठास, पानीका स्वभाव ठण्डा है, स्फटिक स्वभावसे निर्मल है। वैसे आत्मा स्वभावसे निर्मल ही है। लेकिन उसे अनादिसे विभावभावकी भ्रान्ति हुयी है कि मैं मलिन हो गया, विभावका प्रवेश हो गया है। आत्मा स्वभावसे निर्मल अनादिअनन्त है। अनन्त भव हो गये फिर भी वह स्वभाव तत्त्व तो ज्योंका त्यों है। इसलिये वह तत्त्व वर्तमानमें ऐसा है और त्रिकाल वैसा है। इसलिये उसे प्रयत्न करके पहचान लेना। वही जीवनका सर्वस्व है। उसीके लिये, उसे पीछाननेका प्रयत्न करना।
मुमुक्षुः- आपके जो भी उदगार यहाँ निकले हैं, बहुत सुन्दर हैं। आपने जो... बिना नहीं चलेगा। आप कितना अच्छा बोले।
समाधानः- नहीं चलेगा। स्वयं आत्माकी साधना करे उसमें देव-गुरु-शास्त्रको साथमें रखता है। अंतरका स्वभाव प्रगट हो उसमें देव-गुरु-शास्त्र साथमें होते ही हैं। कोई बार बोला होगा इसलिये लिख लिया होगा।
मुमुक्षुः- बहुत सुन्दर आ गया है। चैतन्यके बिना नहीं चलेगा।
समाधानः- वैसे देव-गुरुके बिना भी नहीं चलेगा।
मुमुक्षुः- सब लिया है। शास्त्र लिया, फिर अपना श्रुतका चिंतवन, सब बोल आपने लिये हैं।
समाधानः- बोले हों, वह लिख ले।