३१० कि ये ज्ञानी हैं। फिर उनकी अपूर्वता जानकर स्वयं निज अपूर्व स्वरूप है उसे जाननेका प्रयत्न करे। अंतरसे आत्माका भेदज्ञान करनेका प्रयत्न करे। भेदज्ञान हो और स्वानुभूति हो तो यथार्थ दशाको जान सकते हैं।
मुमुक्षुः- वचनामृतमें लिखा है कि ज्ञानीको शुभ है वह काले नाग जैसा दिखता है। जबकि ज्ञानी हैं वह तो दृष्टाभावसे जो है उसे सहज देखते हैं। तो ऐसा देखना तो बहुत निम्न कोटिकी दशा हो गयी हो तब ऐसा दिखता है? अच्छी दशा हो तो सहज ही दृष्टाभावसे उसका स्पर्श नहीं होता। वास्तवमें तो शुभका स्पर्श ही नहीं होता। तो वह वचन आपने कैसे लिखा है? किस अपेक्षासे?
समाधानः- उसकी ज्ञाता-दृष्टाकी दशा भेदज्ञानकी है कि ये विभाव है और यह स्वभाव है। तो उसे सहज ज्ञान होता है। ज्ञायक ज्ञायकरूपसे उसे अपनी परिणतिमें खडा है। ये भिन्न है और मैं भिन्न हूँ। परन्तु अल्प अस्थिरता है उसे जानता है, परन्तु उसकी भावना ऐसी हो कि मैं स्वरूपमें लीन हो जाऊँ, पूर्ण लीन कैसे हो जाऊँ, ऐसी भावनाके कारण उसे वह काला नाग लगता है। ऐसी अपेक्षा है, उस अपेक्षासे (बात है)। बाकी तो उसे..
मुमुक्षुः- द्वेषबुद्धि जैसा तो अर्थ नहीं होता है।
समाधानः- द्वेषबुद्धि नहीं है, वह तो जानता है, ज्ञायक है-ज्ञाता है। यह आता है उसका ज्ञाता-दृष्टा है, परन्तु उसे भावना तो ऐसी रहे कि यह अल्पता है। मुनिओं जैसे क्षण-क्षणमें स्वरूपमें जम जाते हैं अंतर्मुहूर्त-अंतर्मुहूर्तमें, ऐसी दशा नहीं है। ऐसी दशा मुझे कब हो कि मैं स्वरूपमें लीन हो जाऊँ? इसलिये यह विभाव है वह आदरणीय नहीं है। वह मेरा स्वभाव नहीं है। उस अपेक्षासे (कहा है)। मुझे कब वीतरागदशा हो जाय और मैं शाश्वत आत्मामें रह जाऊँ। इतना जो ज्ञेयरूपसे विभाव ज्ञात हो रहा है, वह विभाव मुझे न हो, मुझे पूर्ण स्वभाव हो। ऐसी उसकी भावना रहती है।
मुमुक्षुः- ... तारतम्यतासे भावमें फर्क पडनेवाला ही है। दशा बहुत अच्छी हो उस वक्त तो किसीका स्पर्श ही नहीं होता।
समाधानः- वह तो स्वानुभूति निर्विकल्प दशा हो उस वक्त तो उस ओर उसका उपयोग भी नहीं है। स्वयं तो निर्विकल्प दशामें आनन्दमें है। परन्तु जब उसका उपयोग बाहर आता है, भेदज्ञान हो, बाहर उपयोग आये तब जानता है कि इतनी न्यूनता है। इसलिये वह न्यूनता है, उस न्यूनताको जानता है। अतः पूर्णता कब हो, उस अपेक्षासे (ऐसी भावना रहती है कि) यह विभावभाव मुझे नहीं चाहिये। इतना विभाव भी मुझे पुसाता नहीं।
जैसे आँखमें कण नहीं समाता, वैसे भले द्रव्यदृष्टिमें पूर्ण निर्मल होऊँ, परन्तु पर्यायमें