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इतनती भी कचास मुझे नहीं चाहिये। काला नाग अर्थात वह मुझे आदरणीय नहीं है, इसलिये मैं पूर्ण हो जाउँ, ऐसी उसकी उग्र भावना वर्तती है। निर्विकल्प दशाके समय तो उस ओर उपयोग भी नहीं है।
मुमुक्षुः- हाँ, वह तो बाहर आनेके बाद तुरन्तकी दशा भी बहुत अच्छी होती है।
समाधानः- उस वक्त भी उसे भेदज्ञानकी ही दशा होती है। बाहर आये तो एकत्वबुद्धि होती नहीं। एकत्व हो तो-तो उसकी दशा ही न रहे। भेदज्ञान, अंतरमें आंशिक शांतिधारा और समाधिकी धारा उसकी वर्तती रहती है। निर्विकल्प दशाकी आनन्द दशा एक अलग बात है, परन्तु बाहर आये तो भी शांतिकी धारा और समाधिकी धारा, ज्ञायकधारा वर्तती ही है। परन्तु अल्प (विभाव) है तो सही, अल्प भी न हो तो-तो केवलज्ञान (होना चाहिये)। अल्प है, वह अल्प भी मुझे नहीं चाहिये। इतना भी मुझे नहीं चाहिये। आँखमें रजकण जितना भी नहीं चाहिये। मैं पूर्ण हो जाऊँ, इसलिये कहता है कि वह काला नाग है। मुझे यह कुछ नहीं चाहिये।
मुमुक्षुः- शब्द काला नाग है, इसलिये किसीको ऐसा लगे, ऐसा? किसीको ऐसा लगे कि द्वेषभाव है?
समाधानः- भावना है। वीतरागताकी भावना है।
मुमुक्षुः- ज्ञानीको तो आगे-पीछे करनेकी वृत्ति नहीं होती, तो ऐसा भाव भी क्यों होता है?
समाधानः- वीतरागताकी भावना तो होती है न कि मैं वीतराग कैसे होऊँ? वीतरागताकी भावना है। इतना राग भी मुझे नहीं चाहिये। मुझे वीतरागता प्रगट होओ। कुछ न हो तो उसे पुरुषार्थ कैसा? तो कृतकृत्य हो गया, तो केवलज्ञान हो जाय। उसकी साधककी दशा है, पुरुषार्थकी धारा है। इसलिये मेरे पुरुषार्थकी उग्रता कैसे हो, ऐसी भावना है। उस भावनाके जोरमें कहता है कि यह काला नाग है, यह मुझे नहीं चाहिये। उसकी आदरणीय बुद्धि नहीं है, मुझे स्वभाव ही आदरणीय है। मुझे स्वभाव चाहिये, यह नहीं चाहिये, इतना भी नहीं चाहिये।
बाहुबली मुनि ऐसे ध्यानमें थे, छठवें-सातवें गुणस्थानमें झुलते थे। तो उन्हें अल्प विभाव रहा कि मैं भरतकी भूमि पर खडा हूँ, उतना अन्दर रहा तो केवलज्ञान नहीं हुआ। अर्थात ज्ञानीको इतना रजकण जितना भी मुझे नहीं चाहिये। बाहर आये तब। उतनी भावनाकी उग्रता है। शांतिकी धारा है, समाधिकी धारा है, सब है, परन्तु इतना है (वह भी नहीं चाहिये)। पुरुषार्थ है, केवलज्ञान नहीं है इसलिये वह कहता है कि मुझे इतना भी नहीं चाहिये।