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मुमुक्षुः- उत्पन्न हुयी भावनाको वह जानता है कि करता है?
समाधानः- भावना उसे अंतरमेंसे होती है। स्वभाव-ओर जिसकी परिणति झुक गयी, जिसे निर्विकल्प दशा, स्वभावरूप परिणमन हो गया उसे मेरी पूर्ण परिणति कैसे हो, ऐसी भावना उसे आये ही। जिसे स्वभाव-ओर दृष्टि गयी, उसे पूर्णकी भावना साथमें (होती ही है)। मैं पूर्ण द्रव्यसे हूँ, परन्तु पर्यायसे अभी अधूरा हूँ। इसलिये उसे पूर्णताकी भावना अन्दर आती ही है। श्रीमद कहते हैं न कि "क्यारे थईशुं बाह्यान्तर निर्ग्रन्थ जो, सर्व सम्बन्धनुं बन्धन तीक्षण छेदीने, विचरशुं कव महत पुरुषने पंथ जो।' ऐसी भावना तो आती ही है।
मुमुक्षुः- यदि भावना न हो तो सविकल्प पुरुषार्थ होगा कैसे?
समाधानः- हाँ, तो पुरुषार्थ ही न रहे। भावना तो अन्दर रहती है।
मुमुक्षुः- क्षण-क्षणमें पुरुषार्थ तो चालू है।
समाधानः- तो साधकदशाका पुरुषार्थ कहाँ गया? भेदज्ञानकी धाराका पुरुषार्थ, समाधि-शान्ति, ज्ञायकता, भेदज्ञानकी धारा कैसे उग्र हो? ज्ञायककी ज्ञाताधारा कैसे उग्र हो? ऐसी उग्र हो कि जिसमें विभाव हो ही नहीं। ऐसी उग्रता हो जाय, ऐसी भ भावना रहती है।
मुमुक्षुः- क्षायिक समकितीके धनी लडाईके मैदानमें तलवार लेकर लोगोंको काटते हो, उसका आश्चर्य नहीं लगता?
समाधानः- उतनी उसकी न्यूनता है। भावना तो उग्र है। उसकी न्यूनता है। अन्दर भेदज्ञानकी धारा वर्तती है, एकत्वबुद्धि नहीं है, अल्प राग है, राजका राग है, इसलिये वह लडाईके मैदानमें खडा है। फिर भी उसका वर्तन न्यायसे होता है। परन्तु वह होता है। ऐसी बाहरकी क्रिया होती है। अंतरकी परिणति,.. हाथीके दिखानेके दाँत अलग और अंतरके अलग होते हैं। ऐसा लगे कि कैसे कर सकते होंगे? लडाईमें कैसे खडे रहते होंगे? ऐसे संयोगमें आ जाय।
मुमुक्षुः- वास्तवमें तो ज्ञानी अपने स्वभावमें ही खडे हैं, बाहर कहाँ खडे ही हैं?
समाधानः- स्वभावकी परिणतिमें स्वयं खडे हैं। बाहर.. समाधानः- खडे हो ऐसा लोगोंको दिखे। समाधानः- दिखे, अल्प राग है, अल्प राग है। फिर भावना हो तो मुनि बनकर चले जाते हैं। ऐसा हो जाता है।
मुमुक्षुः- माताजी! अभी तो पुरुषार्थ नहीं उठता है।
समाधानः- .. सब स्पष्ट करके बता दिया है। सबको दृष्टि तो दे दी है। पुरुषार्थ