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करनेका बाकी है। पुरुषार्थ, भेदज्ञानकी धारा तो स्वयंको ही करनी है। कहीं किसीको भूल न रहे इतना सूक्ष्म-सूक्ष्म करके पूरा मार्ग आखिर तक बता दिया है। शरीर भिन्न, विभाव स्वभाव तेरा नहीं है, शुभभाव भी तेरा स्वभाव नहीं है। ये क्षणिक पर्यायोंमें तू अटकना मत। तू तो शाश्वत है। गुणभेदके विकल्पमें (अटकना मत)। तेरेमें अनन्त गुण हैं, तेरी स्वभाव पर्याय, उसके भेदमें भी तू अटकना मत। उस विकल्पके भेदमें (मत अटकना)। जानना सबको, लेकिन दृष्टि तो एक अखण्ड पर स्थापित करना। गुरुदेवने तो बहुत स्पष्ट करके बताया है। एक अखण्ड चैतन्य पर दृष्टि स्थापित करके विभावका भेदज्ञान करके तू स्वभावमें दृष्टि स्थापित करके उसकी लीनता कर। उसका भेदज्ञान कर। बारंबार मैं चैतन्य हूँ, चैतन्य हूँ, यह मैं नहीं हूँ, यह मैं नहीं हूँ, (ऐसा) अंतरमेंसे प्रतिक्षण होना चाहिये। एक बार करके छोड दिया, ऐसे नहीं होताा। उसकी भावना करे वह बराबर है, परन्तु अंतरमें क्षण-क्षणमें स्वभावको पहिचानकर, जो वस्तु है उसका स्वभाव पहिचानकर तदगत परिणति हो, उस रूप हो तो उसका प्रतिक्षण भेदज्ञान करते- करते उसकी भेदज्ञानकी धारा, ज्ञाताधाराकी उग्रता हो तो विकल्प छूटे और स्वानुभूति हो।
यह जीवन विभावका उसका कैसा सहज हो गया है। सहज विकल्प, सब सहज। ऐसे स्वभावका जीवन सहज होना चाहिये। मैं ज्ञायक हूँ, ज्ञायक हूँ। ऐसी सहज धारा अंतरमेंसे हो तो हो। ऐसी सहज शांतिकी, समाधिकी धारा उसकी सहज होनी चाहिये। तो होता है। पुरुषार्थ तो स्वयंको ही करना है। स्वयं ही है, कोई अन्य नहीं है। स्वयंको ही करना है। उसका भेदज्ञान क्षण-क्षणमें, क्षण-क्षणमें मैं चैतन्य हूँ, सब कार्य करते हुए कोई भी विकल्प आये, विकल्प भी मैं नहीं हूँ।
क्षण-क्षणमें विकल्प (चल जाये), फिर याद करे कि मैं भिन्न हूँ (ऐसे नहीं)। जो विकल्प आये उसी क्षण ऐसा होना चाहिये कि मैं ज्ञायक हूँ। जिस क्षण विकल्पकी मौजूदगी है, उसी क्षण ज्ञायककी मौजूदगी, ज्ञायकके अस्तित्वकी मौजूदगी, उसी क्षण पुरुषार्थ, उसी क्षण स्वयंकी मौजूदगी हो ऐसी उसकी सहज धारा तो वह आगे बढे। एकत्वबुद्धि हो और बादमें याद करे तो वह बादमें याद करे ऐसे नहीं। क्षण-क्षणमें उसी क्षण अपना अस्तित्व मौजूद रखे, ऐसी अंतरसे उग्रता हो तो आगे बढे। गुरुदेवने मार्ग तो एकदम स्पष्ट किया है। ऐसा अपूर्व मार्ग बताया है।
मुमुक्षुः- मोक्ष अधिकारका १८०वां कलश है। यह कलशटीका है। कटशटीकामें भावार्थ है, उसमें लिखते हैं कि "भावार्थ इस प्रकार है कि करोंतके बारबार चालू करनेसे पुदगलवस्तु काष्ठ आदि दो खण्ड हो जाता है, उसी प्रकार भेदज्ञान द्वारा जीव-पुदगलको बारबार भिन्न भिन्न अनुभव करनेपर भिन्न-भिन्न हो जाते