३१४ हैं। इसलिये भेदज्ञान उपादेय है'। यहाँ मेरा मुख्य प्रश्न यह है कि बारबार भिन्न- भिन्न अनुभव करनेपर भिन्न-भिन्न हो जाते हैं। बारंबार भिन्न-भिन्न यानी थोडा भिन्न हो उसका उसे ख्याल आता है? क्योंकि इसमें लिखा है कि बारंबार भिन्न-भिन्न अनुभव करनेपर। भिन्न-भिन्न करके वह बारबार अनुभव करता है। उसका अर्थ कि पहले, निर्विकल्प सम्यग्दर्शन होने पूर्व भी उसे भेदज्ञान होता है? क्योंकि यहाँ यह शब्द पडा है।
समाधानः- भावार्थमें है न?
मुमुक्षुः- हाँ जी। मूल पढूँ?
समाधानः- हाँ, मूलमें क्या है? ... ऐसा कहते हैं। जो भेदज्ञान हुआ उस भेदज्ञानको बारबार ऐसे ही उग्र रखता है। बारबार भेदज्ञान, मैं यह नहीं हूँ और यह नहीं हूँ, ऐसे तत्काल प्रज्ञाछैनीसे भेदज्ञान हो गया कि मैं यह चैतन्य हूँ और यह मैं नहीं हूँ। यह विभावभाव मैं नहीं हूँ, परन्तु यह स्वभाव मैं हूँ। प्रज्ञाछैनीसे भेदज्ञान किया। उसकी तीक्ष्णता करनेसे बारबार उसकी उग्रता करनेसे। ऐसा कहते हैं।
मुमुक्षुः- अर्थात विकल्पात्मक उसे अनुभवका अंश प्रगट होता है? विकल्पात्मक वह ऐसा करता रहे कि यह मैं हूँ और यह नही हूंँ, ऐसा?
समाधानः- उसे भेदज्ञानकी धारा कहते हैं। उस भेदज्ञानकी धारा द्वारा स्वानुभूति होती है।
मुमुक्षुः- भेदज्ञानकी धारा प्रगट होती है?
समाधानः- पहले भेदज्ञानकी धारा प्रगट होती है, फिर स्वानुभूति होती है।
मुमुक्षुः- विकल्पात्मक भेदज्ञानकी धारा प्रगट होती है और उसीमें विशेष तीक्ष्णता..
समाधानः- उसमें बारबार तीक्ष्णता करनेसे स्वानुभूति होती है। किसीको तत्काल उग्रता हो जाय तो शीघ्रतासे हो जाता है। उसी क्षण। और उसका अभ्यास करनेसे, उग्रता करनेसे स्वानुभूति होती है।
मुमुक्षुः- ...
समाधानः- हाँ, मूल कलशमें तो प्रज्ञाछैनी अर्थात स्वानुभूतिकी बात ली है। उसमें तो स्वानुभूति (ली है)। प्रज्ञाछैनीकी करोंत द्वारा, प्रज्ञाछैनी द्वारा तत्काल भेद हो जायगा और उसमें तुझे स्वानुभूति होगी। कलशमें तो ऐसा ही लिया है कि तत्काल भेद होनेसे तुझे तत्काल स्वानुभूति हो जायगी। परन्तु इसमें बारंबार अभ्यास अर्थात उसकी उग्रता बारंबार करनेसे तुझे स्वानुभूति होगी, ऐसा कहना चाहते हैं। विकल्प है, परन्तु विकल्प है वह मैं नहीं हूँ, परन्तु मैं ज्ञायक हूँ, ज्ञायक हूँ, ऐसी ज्ञाताधाराकी उग्रता, उसकी उग्रता द्वारा तुझे स्वानुभूति होगी।
मुमुक्षुः- उस समय भी उसे विकल्प स्पष्ट भिन्न दिखता होगा न?