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... आगे नहीं जाय तबतक शास्त्र अभ्यास, उसका चिंतवन, मनन होता ही है। इतना पढना ही चाहिये या इतना धोखना चाहिये, ऐसा कोई सिद्धान्त नहीं है। अंतरसे समझना चाहिये। थोडा (प्रयोजनभूत) समझे तो भी अंतरसे प्रगट हो। उसे थोडा आता हो। शिवभूति मुनि थे, उन्हें कुछ याद नहीं रहता था। आत्मा भिन्न और यह विभाव भिन्न (है)। इतनी समझ हुयी तो अंतरमें ऊतर गये।
मुमुक्षुः- सबमेंसे एक आत्माको भिन्न कर लेना..
समाधानः- मा-रुष और मा-तुष कहा तो उतना भी याद नहीं रहा। गुरुदेवने क्या कहा, राग करना नहीं, द्वेष करना नहीं, वह याद नहीं रहा। बाई दाल धो रही थी। मेरे गुरुने कहा, ये दाल भिन्न, छिलका भिन्न। आत्मा भिन्न और विभावभाव भिन्न। ऐसा भाव ग्रहण कर लिया। अन्दरसे भेदज्ञान किया, आत्मा भिन्न और यह भिन्न है। ऐसा करके अंतरमेेंसे (ग्रहण कर लिया)। मूल प्रयोजनभूत ग्रहण करना है।
मुमुक्षुः- ऐसा कुछ है कि मनुष्यको बचपनमें अथवा छोटी उम्रमें कम ख्याल आये और बडी उम्र हो तब उसे ज्यादा भाव हो?
समाधानः- ऐसा कोई नियम नहीं होता है। ऊलटा छोटी उम्रमें बहुतोंको ज्यादा होता है। किसीको बडी उम्रमें होता है, उसे उम्रके साथ कोई सम्बन्ध नहीं है। उम्रके साथ कुछ सम्बन्ध नहीं है। आत्मा स्वतंत्र है।
जबतक न हो तबतक अभ्यास करते ही रहना। जिसे जो लगन लगी वह छूटती नहीं। लौकिकमें कोई रस हो तो उसके पीछे लगकर वह काम करता ही रहता है, न हो तो भी। कुछ भी हो, बाहरकी कोई कला सीखनी हो, कुछ सीखना हो तो वह करता ही रहता है, जबतक न आये तबतक। वैसे इसके पीछे पडकर उसका अभ्यास करता ही रहे। उतना विश्वास और उतनी प्रतीति होनी चाहिये कि इसी मार्गसे आत्मा प्रगट होनेवाला है।