समाधानः- .. स्वभाव-ओरकी महिमा आनी चाहिये। चैतन्यतत्त्व ही अलग है, यह जड तत्त्व भिन्न है। दोनों भिन्न हैं, उसका भेदज्ञान कर। विभावस्वभावसे भिन्न है। वह निज स्वभाव नहीं है। अपना स्वभाव वर्तमान..
भेदज्ञानका अभ्यास करे तो हो। परन्तु वह अभ्यास कब हो? कि अंतरमें उतनी लगन लगे तो हो। उसके लिये विचार, वांचन, देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा (होती है)। चैतन्य कोई अपूर्व तत्त्व, अनुपम तत्त्व है। उसकी महिमा आये तो उस ओर जाय। गुरुदेवने तो कोई अपूर्व मार्ग बताया, इस पंचमकालमें। न हो तबतक उसका अभ्यास करते रहना। बारंबार चैतन्यको पहिचाननेके लिये।
... दृष्टिमें रुका है। अंतर दृष्टि करके अंतरमें परिणति प्रगट करने जैसी है। अंतरसे स्वभावको पहचाने। चैतन्य ज्ञानस्वभाव सो मैं हूँ। उसके अलावा कोई वस्तु मेरी नहीं है। कोई परभाव मैं नहीं हूँ। अपने स्वभावको पीछाने। अंतरमेंसे भेदज्ञान करे तो होता है, तो मुक्तिका मार्ग प्रगट हो।
द्रव्य पर दृष्टि करे अंतरमेंसे तो मार्ग प्रगट होता है। अनन्त काल गया तो भी ज्योंका त्यों है। द्रव्यका कहीं नाश नहीं हुआ है। चैतन्यतत्त्व तो शाश्वत है। अनन्त शरीर धारण किये, परन्तु तत्त्व तो ज्याेंका त्यों शाश्वत है। उस शाश्वत तत्त्वको अंतरसे पहचाने तो होता है।
.. उदयमें गया, .. अनन्त-अनन्त भव किये तो भी तत्त्व तो वैसाका वैसा शाश्वत है। अपूर्व तत्त्व है उसे पहचाने। बारंबार उसका अभ्यास करे तो होता है। उसकी जरूरत महेसूस हो, सारभूत वह है, सार ही वह है, ऐसी अंतरसे प्रतीति आये तो होता है। पुरुषार्थ करना अपने हाथकी बात है। कोई कर नहीं देता। अनन्त काल गया तो स्वयं अपने पुरुषार्थकी मन्दतासे और विभावकी रुचिसे रखडा है। और स्वयं स्वयंके पुरुषार्थसे पलटता है। कोई कर नहीं देता।
देव-गुरु-शास्त्र निमित्त होते हैं। भगवानका अपूर्व निमित्त हो, गुरुदेवका निमित्त हो, परन्तु उपादान तो स्वयंको ही करना पडे, कोई कर नहीं देता। पुरुषार्थ तो स्वयंको ही करना है। अंतरमें स्वयंको ही परिवर्तन करना है। बाह्य कार्यमें जरूरत लगे तो