Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi).

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ट्रेक-

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मुमुक्षुः- अभी वर्तमानमें तो हमारी कचास बहुत है।

समाधानः- अंतरमेंसे ऐसी भावना हो कि मुझे तैयारी ही होना है और मुझे आत्माका (हित) करना ही है। वह भले पुरुषार्थ न कर सके परन्तु स्वयं भावनाकी तैयारी, रुचिकी तैयारी तो स्वयंकी होनी ही चाहिये। मुझे यह करना ही है, ऐसी जिज्ञासा, ऐसी रुचि, ऐसी दृढता, स्वयंको अंतरसे ऐसा होना चाहिये। भले पुरुषार्थ वह कर न सके, उतना अंतरसे विचार या उतना चिंतवन या स्वयं अंतरमें स्वभावको पहचाननेका उतना कर न सके, लेकिन उसकी भावना तो तीव्र होनी चाहिये।

भावना होनी चाहिये कि मुझे यह करना ही है। ये देव-गुरु-शास्त्र बता रहे हैं कि आत्मा कोई अपूर्व है और वह अपूर्वता मुझे प्रगट करनी है। वह अपूर्व क्या है, उसकी भावना, जिज्ञासा, आत्मदेवके दर्शन कैसे हो, उसकी भावना और जिज्ञासा, ऐसी जिज्ञासा तो स्वयंको होनी चाहिये। दूसरी तैयारी भले वह पुरुषार्थ न कर सके, आगे न बढ सके परन्तु उसकी भावना, लगन तो स्वयंको होनी चाहिये। तो वह पहुँच सकता है। दूसरी सब लगन, उसकी रुचि कम होकर आत्मा-ओरकी रुचि गहराईसे यदि हो तो वह पहुँच सकात है।

आता है न कि "तत्प्रति प्रीतिचित्तेन येन वार्तापि हि श्रुता'। प्रीतिसे यदि इस तत्त्वकी बात भी सुनी है तो वह भावि निर्वाण भाजनम-भविष्यमें निर्वाणका भाजन होता है। ऐसी तत्त्वकी बात अंतरसे रुचिपूर्वक कोई अपूर्व भावसे सुनी हो तो वह भावि निर्वाण भाजनम। इसलिये उसे अंतरमेंसे रुचि प्रगट होनी चाहिये। फिर वर्तमान पुरुषार्थ (करके) उतना आगे चल नहीं सकता हो, भेदज्ञान करके ज्ञाताधारा प्रगट करनी, स्वानुभूति करनी उसका पुरुषार्थ चलता न हो, परन्तु भावना तो.. अपूर्वता उसे अंतरमेंसे लगनी चाहिये कि ये कुछ अपूर्व है। ये बाहरका सब कुछ अपूर्व नहीं है। ये अंतरमें आत्मा है वही अपूर्व और आत्माका स्वभाव और आत्मा अनुपम है। जो देव-गुरु- शास्त्र बता रहे हैं, वही करने जैसा है और वे कुछ अलग ही बताते हैं और वही आदरणयी है, ऐसा अंतरमेंसे स्वयंको रुचि और प्रीति तो होनी चाहिये। तो भावि निर्वाण भाजनं। भविष्यमें निर्वाणका भाजन हो।

निमित्त प्रबल हो, परन्तु स्वयंकी रुचि उतनी जागृत (हो), स्वयंकी उतनी रुचि होनी चाहिये कि मुझे यह चाहिये। दूसरा कुछ नहीं चाहिये। मुझे यह एक आत्मा ही चाहिये। दूसरा विभावका रस टूट गया हो। वह छोड नहीं सकता है, परन्तु अन्दरसे रुचि आत्माकी लगनी चाहिये। आचार्यदेव कहते हैं कि प्रीतिसे उसकी वार्ता भी, उसका श्रवण भी प्रीतिपूर्वक अपूर्व भावसे किया है तो वह भविष्यमें निर्वाणका भाजन है। तत्त्वकी उतनी रसिकता अंतरसे होनी चाहिये।