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समाधानः- .. कोई आनन्द आये। जिनेन्द्र देव, गुरु, शास्त्र जो बता रहे हैं, वह साधना, वह साधकभाव, साध्य स्वरूप आत्मा, अनादिअनन्त तत्त्व चैतन्य तत्त्व वह सब बातें, साध्य-साधककी बात, उन सब बातोंमें कुछ अपूर्वता लगे और शास्त्रमें जो आता है उस बातमें उसे कुछ चमत्कार जैसा लगे कि ये कुछ अलग है, ऐसी अपूर्वता लगनी तो वह भावि निर्वाणका भाजन है, ऐसा शास्त्रमें आता है।
जिसे जिसकी प्रीति लगे, रुचि लगे उस ओर उसका पुरुषार्थ मुडे बिना रहता नहीं। फिर उसे काल लगे वह अलग बात है। परन्तु अंतरमें उसकी रुचि उर ओर जाती है तो अवश्य उस ओर मुडे रहेगा नहीं। (विभावभाव आये) परन्तु वह आदरणीय नहीं है। जो देव-गुरु-शास्त्र कहते हैं कि शुभभाव भी तेरा स्वरूप नहीं है। उससे भी तू भिन्न, तू निर्विकल्प तत्त्व है। यह शुभभाव भी अनन्त बार बहुत बार किया। परन्तु उससे कोई मुक्ति नहीं है। तू उसका भेदज्ञान कर। उससे भी तू भिन्न है। ऐसी बातमें जिसे रुचि लगे, अपूर्वता लगे तो वह तत्त्वकी प्रीति है।
आत्मा कोई अंतरमें (अपूर्व है)। बाह्य प्रवृत्ति हो उससे आत्मा, शुभभावसे भी उसका स्वरूप भिन्न है। उस बातकी उसे रुचि लगे। भले शुभभावना उसे आये, देव- गुरु-शास्त्रकी महिमा आये, शुभभावमें है इसलिये, वह अशुभमें नहीं जाता। शुभभाव आये लेकिन उसे आदरणीय एक निर्विकल्प तत्त्व ही लगे। शुभभावकी रुचि नहीं होती। वह अनन्त बार बहुत बार किया, द्रव्यलिंगी मुनि हुआ, सब हुआ लेकिन उसे शुभभावमे ं रुचि अंतरमें रह जाती है। महाव्रतादि शुभभावकी अंतरमें रुचि रहती है कि यह ठीक है, यह प्रवृत्ति ठीक है, ये शुभभाव ठीक है। ऐसी अन्दर मीठास रह जाती है।
जो गुरु कहते हैं, जो देव कहते हैं और तत्त्वका स्वरूप ही ऐसा है। ऐसे स्वयं बुद्धिसे विचार करके नक्की करे कि ये सब जो भाव हैं, उस भावसे भी मैं भिन्न हूँ। जैसे सिद्ध भगवान निर्विकल्प तत्त्व हैं, उन्हें किसी भी प्रकारके विकल्पकी आकुलता नहीं है। एकदम निर्विकल्प तत्त्व। आत्मामें आनन्द, आत्मामें ज्ञान। बस। एक निवृत्त परिणामरूप जो है और स्वरूपमें परिणति है। और परसे निवृत्ति है। ऐसे जो सिद्ध भगवान हैं, वैसा ही आत्माका स्वरूप है। और वही आदरणीय है, दूसरा कुछ आदरणीय नहीं है। मेरा स्वरूप नहीं है। ऐसी उसे रुचि और प्रीति अंतरमें होनी चाहिये।
कहीं-कहीं रुक गया है। बाह्य क्रियामें, कुछ शुभभावनामेंं, ऊँचे-ऊँचे शुभ विकल्प आये कि मैं ज्ञान हूँ, दर्शन हूँ, चारित्र हूँ, ऐसे गुणभेद पडे, वह विकल्प आये, वह विकल्प बीचमें आते तो हैं, परन्तु मेरा स्वरूप नहीं है, मूल स्वरूप नहीं है। मैं तो अभेद तत्त्व (हूँ)। ज्ञान, दर्शन, चारित्र गुणभेदका विकल्प बीचमें आता है। सब गुण हैं आत्मामें, परन्तु आत्मा तो अखण्ड है, ऐसी उसे रुचि लगे। भले गहराईसे कम