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मुमुक्षुः- आप ऐसा कहते हो न, जीवनमें देव-गुरु-शास्त्र वास्तवमें नहीं मिले हैं। एस समय भी दर्शन नहीं किये हैं।
समाधानः- वह तो शास्त्रमें ही आता है कि सब प्राप्त हो चूका है इस संसारमें। परन्तु एक सम्यग्दर्शन अपूर्व है उसकी प्राप्ति नहीं हुयी है। और एक जिनेन्द्र देव नहीं मिले हैं। और मिले तो स्वयंने पहिचाना नहीं है। सच्चे देव-गुरु-शास्त्रको स्वयंने पहचाना नहीं है और अंतरमें एक अपूर्व सम्यग्दर्शन प्राप्त नहीं किया है। बाकी जगतमें सब प्राप्त हो चूका है। कोई भी पदवी अपूर्व नहीं है। कोई देवलोककी पदवी, कोई राजाकी पदवी, कोई भी पदवी अपूर्व नहीं है। एक अपूर्व जगतमें हो तो एक सम्यग्दर्शन, जो स्वानुभूति है वह अपूर्व है और एक जिनेन्द्र देव, जिन्होंने सर्वोत्कृष्ट रूपसे आत्मा प्राप्त किया और स्वानुभूति प्रगट करके हमेंशा शाश्वत आत्मामें विराजमान हो गये, ऐसे जिनेन्द्र देव, जो पवित्रता और सर्व प्रकारसे पूर्ण हैं, ऐसे जिनेन्द्र देव नहीं मिले हैं और एक आत्मा नहीं मिला है। जगतमें वह अपूर्व है, वही करनेका जीवको बाकी रह गया है।
और जिनेन्द्र देव मिले तो स्वयंने पहिचाना नहीं, उनकी महिमा नहीं की है। साक्षात स्वयं आत्माकी महिमा नहीं आयी है और जिनेन्द्र देवकी महिमा नहीं आयी है, गुरुकी महिमा आयी नहीं, शास्त्रकी महिमा नहीं आयी है। जो भगवानको पहिचाने वह स्वयंको पहिचाने और स्वयंको पहिचाने वह भगवानको पहिचानता है। ऐसा निमित्त-उपादानका सम्बन्ध है। इसलिये वास्तवमें स्वयंने भगवानको पहचाना नहीं। जो भगवानको पहिचानता है वह अवश्य स्वयंको पीछानता है। गुरुको पहिचाने वह स्वयंको पहिचानता है। इसलिये यथार्थ रूपसे स्वयं पहिचाने तो स्वयं आत्माके समीप हुए बिना रहता ही नहीं। ऐसा निमित्त-उपादानका सम्बन्ध है। सच्चे देव, सच्चे गुरु, सच्चे शास्त्र मिले और स्वयं अंतरमें समीप न हो जाय तो स्वयंने पहिचाना ही नहीं है। ऐसा निमित्त-उपादानका सम्बन्ध है।
.. चैतन्य कल्पवृक्ष ऊगे तो बाहर देव-गुरु-शास्त्रका कल्पवृक्ष ऊगे बिना रहेगा नहीं। और बाहरसे कल्पवृक्षको स्वयं पहिचाने तो अंतर कल्पवृक्ष ऊगे बिना नहीं रहेगा। स्वयं पहिचाने तो।