मुमुक्षुः- फिर कहे कि मैं करुँगा अपनेआप। लेकिन मुझे आपके बिना नहीं चलेगा।
समाधानः- मैं जा रहा हूँ अपनेआप, परन्तु आप सब मेरे साथ बधारो, सबको साथमें रखता हूँ। पुरुषार्थ स्वयं करे उसका अर्थ ऐसा नहीं है कि मैं अकेला जाऊँ। मैं सबको साथमें रखता हूँ। मुझे जैसे आत्माकी स्वानुभूतिका आदर है, वैसे मैं स्वानुभूति प्राप्त जो साधना करके सर्वोत्कृष्टता प्राप्त की हो, ऐसे देव-गुरु-शास्त्र सबको साथमें रखकर सबका आदर करता हूँ। सब पधारो, सब मेरी साधनामें साथमें पधारिये।
समाधानः- .. ज्ञायकदेव पधारे, ऐसा निमित्त-उपादानका सम्बन्ध है। भगवान जिनेन्द्र देव पधारे, वैसे ज्ञायकदेव भी पधारो, आप भी पधारिये। ऐसा निमित्त-उपादानका सम्बन्ध है।
उसमें तो ऐसा आता है न कि भगवानके बिना मुझे नहीं चलेगा, देव-गुरु-शास्त्रके बिना नहीं चलेगा। मैं जा रहा हूँ स्वयं, परन्तु मुझे देव-गुरु-शास्त्रके बिना नहीं चलेगा। मैं तो अंतरमें जाऊँ, अंतरमें जाऊँ वहाँ ज्ञायकदेवके दर्शन, बाहर आऊँ वहाँ मुझे भगवानके दर्शन, गुरुके दर्शन, शास्त्रका दर्शन, उसके बिना मुझे नहीं चलेगा। दृष्टि बाहर आये वहाँ जिनेन्द्र देव पर जाय और अंतरमें जाऊँ वहाँ ज्ञायक पर जाती है। दूसरा कुछ मुझे नहीं चाहिये। जहाँ बाहर उपयोग आये वहाँ भगवान जिनेन्द्र देव, गुरु और शास्त्रके बिना नहीं चलेगा। मेरी दृष्टि बाहर आये तो देव-गुरु और शास्त्र, उनके ही मुझे दर्शन हों। मेरी दृष्टि वहाँ जाय। अंतरमें जाऊँ तो मुझे ज्ञायक पर.. ज्ञायक पर तो दृष्टि है ही, परन्तु उपयोग बदलता है। उपयोग अंतरमें ज्ञायकदेव पर और बाहर आये वहाँ जिनेन्द्र देव। दूसरी कोई भी चीज आदरणीय नहीं है। आदरणीय हो तो एक ज्ञायकदेव और देव-गुरु-शास्त्र। देव-गुरु-शास्त्रके बिना मुझे नहीं चलेगा। अंतरमें जाऊँ। शुभभावनामें मैं उनको भी साथमें रखता हूँ। जबतक वीतराग दशा केवलज्ञान प्राप्त न हो, तबतक जहाँ उपयोग बाहर आये तो भगवान मेरे हृदयमें है और मेरी दृष्टि भी वहाँ-मेरा उपयोग वहाँ जाता है। बाहर आता हूँ तब।
दृष्टि तो ज्ञायकदेवमें स्थापित की है, परन्तु उपयोग जो अंतरमेंसे बाहर आये वहाँ भगवान (हों)। मैं नजरोंसे देखूँ तो भगवानके दर्शन हो, भगवानकी स्तुति हो, भगवान जिनेन्द्र, शास्त्रका श्रवण मुझे हो, मेरा पूरा उपयोग वहाँ जाय, बाहर आऊँ तब। और अंतरमें मुझे ज्ञायकदेव-ज्ञायकदेव, ज्ञायकदेव मेरे अंतरमें पधारिये। दृष्टि तो ज्ञायकदेव पर ही है, परन्तु बारंबार मेरे हृदयमें, मेरी परिणतिरूप मुझे स्वानुभूतिरूपसे बार-बार मेरे अंतरमें पधारिये। बाहरसे भगवान आप पधारिये, जिनेन्द्र देव पधारिये। गुरुदेवको भाव आ गया था।