Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi).

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अमृत वाणी (भाग-४)

३३४ समवसरणमें विराजते हों ऐसे।

जो जिनेन्द्रको पहिचाने वह स्वयंको पहिचाने, वह आता है। जिनेन्द्रको पहिचाने। जिनेन्द्र देवकी प्रतिमाएँ भी जगतमें हैं। प्रतिमा शाश्वत, मन्दिर शाश्वत। जगतमें आदरणीय क्या है, वह कुदरत बता रही है। आदरणी और महिमा किसकी करनी वह कुदरत बता रही है। मन्दिर शाश्वत और प्रतिमाएँ शाश्वत हैं।

मुमुक्षुः- भगवानका आदर वह तो..

समाधानः- निमित्त-उपादानका सम्बन्ध ऐसा है। भगवानने प्रगट किया। स्वयंको दार्शनिकरूपसे दर्शा रहे हैं कि यह प्रगट करके इस रूप चैतन्यबिंब हो गये। ऐसा करने जैसा है। भगवान मार्ग बता रहे हैं। वाणी द्वारा, दिव्यध्वनि द्वारा। किस मार्ग पर जाना? गुरुदेवने उसकी पहचान करवायी, गुरुदेवने वाणी द्वारा (दर्शाया कि) मार्ग कौन-सा सच्चा है?

... विहरमान भगवान भी शाश्वत। एकके बाद एक प्रवाहरूपसे शाश्वत ही रहते हैं। नये-नये, नये-नये भगवान तो होते ही रहते हैं। वह क्षेत्र ऐसा है कि वहाँ भगवान हमेंशा विराजमान ही रहते हैं। चैतन्यदेवको पहिचाननेके निमित्त भी जगतमें तैयार होते हैं। स्वयं तैयार हो तो सब तैयार ही है। अपनी तैयारी नहीं है। स्वयं तैयार हो तो जगतमें सब तैयार है। मार्ग दिखानेवाले भी तैयार है, सब तैयार है।

अनादि कालसे कहीं-कहीं भ्रममें, भूलमें (अटका है)। दूसरोंको भ्रमसे आदरणीय मान रहा है, विभावको आदरणीय मान रहा है। निःसार वस्तुको आदरणीय मान रहा है इसलिये रुक रहा है। सारभूत आत्मा ज्ञायक है वह आदरणीय है। और उसे बतानेवाले देव-गुरु-शास्त्र हैं, वे आदरणीय हैं। ज्ञायकको बता रहे हैं कि तू ज्ञायक भगवान है। तेरा यह स्वरूप है। हम प्रगट करके विराजमान हो गये, वैसे तेरा स्वरूप भी ऐसा है। तू भी प्रगट कर तो अंतरमेंसे वह प्रगट हो सके ऐसा है।

गुरुदेव, भगवान पधारे उस वक्त उनकी भावना कितनी थी। व्याख्यानमें उतना कहते थे। आँखमें आँसू आ जाय। रंगबेरंग छा गये। जिनेन्द्र भगवानके साथ कुदरत बँधी हुई है। "अमीय भरी मूर्ति रची रे, उपमा न घटे कोई'। वह गाते थे। "शांत सुधारस झिलती रे, निरखत तृप्ति न होय, सीमन्धर जिन दीठा लोयण आज, मारा सिझ्या वांछित काज, सीमन्धर जिन दीठा लोयण आज'। पूरी भक्ति गाते थे। भगवान बताऊँ, चलिये भगवान बताऊँ।

.. वह मार्ग गुरुदेवने बताया। भगवान कहते हैं, गुरुदेव कहते हैं, शास्त्र कहते हैं। .. उपयोग जाय तो मुझे आपके दर्शन हो, श्रवण शास्त्रका हो, मेरी वाणी आपकी, स्तुति आपकी, मेरा सब वर्तन देव-गुरु-शास्त्रमें जाओ, बाहर आओ। अंतरमें मेरा ज्ञायकदेव। बाहरका तो सब निःसार है।