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... वह स्वयंको ही निहारता है, हटती ही नहीं। बाहर भगवान पर दृष्टि... इन्द्र एक हजार नेत्र करके देखता है तो भी उसे तृप्ति नहीं होती, भगवानको देखते हुए। भगवान! आपको देखकर मेरी आँखें तृप्ति नहीं होती। बाहर उपयोग आये तो भगवानके दर्शनसे तृप्ति नहीं होती। अंतरमें ज्ञायकदेवमें जो दृष्टि जमी सो जमी, वापस नहीं मुडती। वहीं जम गयी है। उपयोग बाहर जाता है। दृष्टि अंतरमें जम गयी है।
मुमुक्षुः- एकसाथ दोनों काम करते हैं। दृष्टि ज्ञायकमेंसे हटती नहीं और उपयोग भगवानसे हटता नहीं।
समाधानः- हाँ, उपयोग भगवानको देखता रहता है। दोनों हुआ। दृष्टि जम गयी और बाहर भगवानको देखता है। अंतरमें भेदज्ञान चालू है। दृष्टि ज्ञायकमें जमी है। जो परिणाम आये उसे भेदज्ञानकी धारा चलती है। दृष्टि अंतरमें जमी है, उपयोग बाहर है। भगवानको देखता है, तो भी भेदज्ञानकी धारा तो चालू है। भेदज्ञानकी धारा चालू है, अंतरमें दृष्टि है। शुभभावनामें देव, गुरु और शास्त्र है। मुनिओं भी अंतरमें क्षण- क्षणमें अंतर्मुहूर्त-अंतर्मुहूर्तमें जम जाते हैं। तो भी बाहर आये तब उन्हें देव-गुरु-शास्त्र का उपयोग होता है। मुनि शास्त्र लिखते हैं, भगवानका आदर करते हैं, गुरुका आदर करते हैं। मुनिओंको भी (ऐसा) होता है। श्रुतका जो विकल्प आये वह लिखते हैं। कितने ही मुनि जिनेन्द्र देवकी महिमा भी लिखते हैं। श्रुतज्ञान अनेक जातके उपयोगमें बाहर आये तो आता है।
.. अंतरमें चलता हो। भेदज्ञानकी धारा चलती है, ज्ञायककी धारा चलती है। स्वानुभूतिमें अंतर्मुहूर्त-अंतर्मुहूर्तमें जम जाय, उपयोग बाहर आये तो शास्त्र लिखते हैं। जाता हूँ स्वयं, परन्तु मेरेे साथ आप रहना। निमित्त-उपादानकी ऐसी सन्धि है। जोर अपना है, भगवानको साथमें रखता है। भावना ऐसी प्रबल है कि भगवान, देव-गुरु-शास्त्र आप साथमें रहना। ऐसी भावना है। स्वयं अपने पुरुषार्थसे जाता है। अन्दर दृष्टिमें समझना है। बाकी उसे परिणतिमें शुभभावनामें भगवान, देव-गुरु-शास्त्र साथमें रहते हैं। उसकी शुभभावनाकी परिणतिमें। दृष्टिमें समझता है कि मैं स्वयं अपनेसे जाता हूँ। परन्तु निमित्त-उपादानका सम्बन्ध समझता है। ज्ञानमें समझता है। आचरणमें भी शुभभावना है इसलिये देव-गुरु- शास्त्रको साथमें रखता है। अंतरमें ज्ञायकदेवकी वृद्धि करता जाता है, अन्दर परिणतिमें स्वानुभूतिमें।
... तैयार हो तो निमित्त-उपादान... अपनी रुचि साथमें चाहिये। जिनेन्द्र भगवानका प्रबल निमित्त होता है। जिसका उपादान तैयार होता है, उसे वह निमित्त कार्य करता है। उपादान तैयार हो तो होता है। अपनी रुचिकी तैयारी होनी चाहिये। जैसे निमित्त प्रबल, वैसे अपना उपादान साथमें चाहिये। परन्तु जिसकी भावना प्रबल होती है कि