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हो।
ज्ञायकको पहचानना, भेदज्ञान करना, प्रतिक्षण उसकी जागृति रखनी। वह सब (होना चाहिये)। अन्दर उतनी रात और दिन उतनी लगन हो तो हो। सुख लगे नहीं, अंतरमें स्वयं स्वयंको खोजे। अपना सुख अपनेमें है। ऐसे स्वयंको अंतरमेंसे उतनी लगन लगे तो होता है। मार्ग तो एक ही है।
गुरुदेव बारंबार-बारंबार बहुत ही सुनाया है। शरीर तू नहीं है, शुभाशुभ भाव तेरा स्वभाव नहीं है। भेदके विकल्पमें मत रुकना। तेरेमें गुण होनेके बावजूद उसके विकल्पमें मत रुकना। दृष्टि एक चैतन्य पर स्थापित करना। कहाँ तकका मार्ग बता दिया है। दृष्टि स्थापनी, भेदज्ञान करना, उसकी लगन लगानी, पुरुषार्थ, उसकी जागृति रखनी सब अपने हाथमें है। (पहले तो) एक ही संक्षेपमें कहते थे। फिर तो विस्तार होते गया। सब शास्त्र खुल्ले रूपमें पढना शुरू हो गया। पहले तो संक्षेपमें कहते थे। मन-वचन- कायासे आत्मा भिन्न है। विकल्पसे भिन्न है, उस पार है। ऐसा संक्षेपमें कहते थे।
पहले तो शास्त्र दूसरे होते थे हाथमें। ये तो मूल शास्त्र तो बादमें हाथ लगे। पहले तो हाथमें दूसरे शास्त्र हों और परिभाषा जो यथार्थ हो, वह करते थे। राजकोटमें पढते थे न? परदेसी राजाका अधिकार। उसमेंसे आत्मा पर उतारते थे। गुरुदेव स्वानुभूतिकी बात कर रहे हैं। उसमें ग्रहण स्वयंको करना है, स्वयंकी लगन लगानी, बारंबार पुरुषार्थ करना स्वयंको पडता है।
मुमुक्षुः- सबको भावना तो ऐसी रहती है। थोडा धक्का लगना चाहिये न, उसकी जरूरत पडती है, ऐसा लगता है।
समाधानः- करना तो स्वयंको है, कोई कर नहीं देता। गुरुए कहे वाक्य, बारंबार उनका उपदेश याद करना कि क्या मार्ग बताया है। धीरी गतिसे पुरुषार्थ करे तो धीरे हो, उग्र करे तो उग्र हो। अपने हाथकी बात है।
.. उतनी थी कि ये क्षण-क्षण जाय तो उसका दुःख लगे कि आहा..! कब यह होगा? उतनी अंतरमें उग्रता हो तो होता है। .. न हो तो धीरे-धीरे करे तो धीरे-धीरे होता है। कलका इंतजार करे तो कल और आज (करे तो आज हो)। दृष्टान्त देते थे न? जीमनका। आज जीमे बनिये, कल जीमे बारोट। ऐसे कल-कल करता रहे तो कल हो। आज करना है ऐसा करे तो आज हो जाय।
मुमुक्षुः- बनिये आज जिमे और बारोट कल। बारोटकी कल कभी आती नहीं।
समाधानः- हाँ। अपने पुरुषार्थकी गति जैसी हो वैसे होता है। .. मनुष्य जीवनमें कुछ कर लेना है। गुरुदेवने मार्ग बताया। अतः अंतरमें करना है। इसलिये विचार आदि उस ओर चले। ऐसा ही था कि, यह सत्य है तो पुरुषार्थ