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धारा-उदयधारा दोनों भिन्न रहती है। उतनी स्थिरता उसको निरंतर रहती है। और विकल्प टूटकर निर्विकल्पकी स्थिरता वह कोई-कोई बार होती है। निर्विकल्प स्थिरता तो जैसी दशा होवे वैसी होती है।
मुमुक्षुः- तो अगर ये दशा न हो तो क्या सम्यग्दर्शन छूट जाता है?
समाधानः- जिसको भेदज्ञानकी धारा रहती है उसको निर्विकल्प दशा अमुक समयमें आती ही रहती है। उसकी पुरुषार्थकी दशा ऐसी है।
मुमुक्षुः- .. पुरुषार्थ होना चाहिये?
समाधानः- स्थिरताके लिये तो बारंबार ज्ञायककी धाराकी उग्रता करे, ज्ञाताधाराकी उग्रता करे तो स्थिरता होवे। ज्ञायकधाराकी उग्रता। फिर विशेष स्थिरता हो तो उसकी भूमिका भी पलट जाती है। चौथे गुणस्थानमें जो स्थिरता होती है, उससे पंचम गुणस्थानमें विशेष स्थिरता होती है। उससे विशेष छठवे-सातवेंमें होती है। छठवे-सातवें गुणस्थानमें उससे विशेष अंतर्मुहूर्त-अंतर्मुहूर्त आत्मामें उपयोग स्थिर हो जाता है। अंतर्मुहूर्त बाहर जाय, अंतर्मुहूर्त अंतरमें जाय। अंतर्मुहूर्तमें बाहर आवे। तो अंतर्मुहूर्त-अंतर्मुहूर्तमेें उपयोग इतना स्थिर हो जाता है, छठवें-सातवें गुणस्थानें। उसका क्या पुरुषार्थ क्या, ज्ञाताधाराकी उग्रता (करे)। वह तो भूमिका पलट जाती है, विशेष स्थिरता होवे तो। चौथे गुणस्थानमें अमुक प्रकारकी स्थिरता होती है।
मुमुक्षुः- उसके लिये ज्यादा मननकी जरूरत रहती है?
समाधानः- स्थिरताके लिये मननकी जरूरत रहती है ऐसा नहीं। मनन तो श्रुतका चिंतवन रहता है। स्थिरताके लिये तो आत्मामें विशेष लीनता करना। उसकी विरक्ति बढकरके, विभाव परिणामसे विरक्ति होकर ज्ञाताधारामें तल्लीनता-लीनता होवे तो स्थिरता होवे, वही उसका पुरुषार्थ है। मनन तो बीचमें स्थिर न हो सके तो श्रुतका चिंतवन रहता है। वह ज्ञानकी परिणति है, पहलेवाली स्थिरता-लीनताकी परिणति है।
... के लिये मनन करे, विशेष ज्ञानकी निर्मलता करनेके लिये। शिवभूति और कुछ नहीं जानते थे। भेदज्ञानकी धारा उग्रता हो गयी तो उसमें लीनता बढ गयी। लीनता बढ गयी तो वीतराग हो गये, केवलज्ञान हो गया। ऐसा होता है।
मुमुक्षुः- लीनताकी जरूरत है।
समाधानः- हाँ, लीतनाकी जरूरत है। जब लीनता नहीं होवे तब श्रुतका चिंतवन रहता है।
मुमुक्षुः- विचारधारा?
समाधानः- हाँ, विचारधारा रहती है।
समाधानः- .. अन्दर यथार्थ उलझन हो तो अन्दरसे मार्ग हुए बिना नहीं रहता।