३७२ करनी कहाँ रहती है। अनेक प्रकारसे आचार्यदेव कहते हैं। भिन्नरूपसे उपासित होता हुआ ज्ञायक है। तू भगवान आत्माको जान तो ऐसा निमित्त-उपादानका सम्बन्ध है। यहाँ मूल वस्तु बतानी है, तेरा ज्ञायक भिन्न है। वस्तु बता रहे हैं-ज्ञायकको। उसमें तो (ऐसा है कि), कैसे ज्ञात हो? तू अपनेआप अन्दर दृष्टि कर। ऐसे ज्ञात न हो तो तू भगवानको देख। भगवान जैसे हैं वैसा ही तू है। जैसा तेरा निमित्त है, वैसा ही तू है। ऐसा निमित्त-उपादानका सम्बन्ध है। भगवानको यथार्थ जाने तो तुझे ज्ञात हो जायगा, तू तुझे ज्ञात हो जायगा तो भगवानको पहचान लेगा। उपादान-निमित्तका ऐसा सम्बन्ध है। ऐसा वहाँ निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध बताते हैं।
यहाँ ज्ञायकको भिन्न करके बताते हैं। परद्रव्यसे भिन्नरूपसे उपासित करनेमें आता हुआ मैं ज्ञायक भिन्न हूँ। दोनों अपेक्षासे समझनी। निश्चय और व्यवहारका क्या सम्बन्ध है, गुरुदेवने बताया है। ज्ञायक आत्माको भिन्न उपासने पर आत्मा प्रगट होता है। उसका निमित्त देव-गुरु-शास्त्र है। जैसा भगवानका आत्मा, वैसा अपना आत्मा है।
मुुमुक्षुः- भगवान यहाँ है नहीं और भगवानको जानना, ऐसा आचार्य भगवान कहते हैं। हमें कैसे जानना?
समाधानः- भगवानको पहचान। भगवानने क्या प्रगट किया है? विचार कर। गुरु तो साक्षात विराजते थे। सब स्वरूप बताया है। गुरुने ऐसा ही कहा है कि तू तेरे आत्माको पहचान। भगवानका आत्मा जैसा है, वैसा तेरा आत्मा है। ऐसा कहकर, तेरे आत्माको पहचान, ऐसा कहना है। बाह्य दृष्टि मत रखना, अंतर दृष्टि कर। जैसा भगवानका आत्मा है, ऐसा ही तू है। अंतरमें दृष्टि कर, ऐसा ही तेरा ज्ञायक है।
वह ज्ञायक शुद्ध ज्ञायक है। उसमें किसी भी प्रकारके विभावने प्रवेश नहीं किया है। कोई परद्रव्यका प्रवेश नहीं है, क्षणिकमात्र नहीं है। परन्तु वह अखण्ड अनादिअनन्त है, ऐसे ज्ञायकको तू पहचान ले। जिसमें गुणके भेद, पर्यायके भेद पर दृष्टि नहीं करना। उसे ज्ञानमें जान ले, परन्तु अकेले ज्ञायकको ग्रहण कर ले, ऐसा तू ज्ञायक है।
लेकिन वह ज्ञात कब हो? कि अंतरमें उतनी लग लगी हो। भले बुद्धिसे जानकर भी अंतरमें उसे ग्रहण करनेमें उतनी लगन हो तो वह ग्रहण होता है। उसे तू भेदज्ञान करके ग्रहण कर। ग्रहण होता है, बादमें वेदनमें आता है।
मुमुक्षुः- ग्रहण यानी मन द्वारा जान ले, वह ग्रहण?
समाधानः- पहले बुद्धिसे नक्की किया, परन्तु मन द्वारा जानकर, वह मन यानी अंतर सूक्ष्म उसका स्वभाव पहचानकर ग्रहण कर ले। मन तो बीचमें निमित्त आ जाता है। परन्तु अंतरमेंसे तू स्वभावको पहचानकर उसे ग्रहण कर ले। भेद करके ग्रहण कर ले। ये विभाव वह मेरा स्वभाव नहीं है। मैं अन्दर भिन्न ज्ञायक हूँ। अंतर दृष्टि करके