मुमुक्षुः- ख्यालमें आये कि परिणति मार्ग पर जा रही है या नहीं, कैसे स्वरूपकी ओर जाती है, कितने प्रमाणमें जाती है, वह सब उसे ख्यालमें आ जाता है?
समाधानः- उसे ज्ञानमें ख्याल आ जाता है। यथार्थ ज्ञान हो तो ख्यालमें आ जाय। ... दृष्टि और ज्ञान साथमें ही रहते हैं। साथमें काम करते हैं। दृष्टि मुख्य हो, परन्तु ज्ञान उसके साथ यथार्थपने रहता है। ज्ञान यथार्थ (हो तो) उसके साथ दृष्टि होती ही है। ऐसे दृष्टि और ज्ञान साथमेें रहे हैं। उसके विषयमें फर्क है। ज्ञान सब भेद करके जानता है। दृष्टिका विषय अभेद है।
जो सम्यक पंथ पर जाता है, उसमें दृष्टि मुख्य होती है और उसके साथ ज्ञान जुडा रहता है। .. काम करता हो तो दृष्टि उसमें साथमें होती ही है। पहले अभी निर्णय नहीं हुआ हो तो विचारके लिये ज्ञान हो, अभी दृष्टि यथार्थ नहीं हुई हो तो ज्ञानमें थोडी कचास होती है। जो मुख्य प्रयोजनभूत ज्ञान है उसमें। अभी उसे अंतरमेंसे जो प्रगट होना चाहिये उसमें। बुद्धिसे नक्की किया वह एक अलग बात है।
मुमुक्षुः- दोनों साथमें ही होते हैं, सिर्फ विषयमें फर्क है।
समाधानः- सुमेल है। साथ-साथ होते हैं।
समाधानः- ... बाह्य संयोगको स्वयं बदल नहीं सकता। स्वयं अपने भाव... क्या योग्य है, उसका विचार करके स्वयं करना। दूसरेको तो स्वयं कुछ नहीं कर सकता। स्वयं अपना भाव कर सकता है। योग्य क्या है, उसका प्रयत्न कर ले, फिर न हो तो शान्ति (रखे)।
मुमुक्षुः- अच्छा हो और धारणा की हो कि हमारी जो इच्छा है वह हो तो अच्छा है। परन्तु ऐसा होता नहीं है। वह सिद्धान्त उसमें ज्यादा प्रबल होता है।
समाधानः- बाहरमें इच्छानुसार कुछ होता नहीं। स्वयं अपना कर सकता है। .. यह पावन भूमि है, यहाँ गुरुदेव विराजते थे। स्वयं विचार करके अपना करना है। यहाँ विराजते थे, जन्मजयंति मनाते थे, वह प्रसंग अलग था। ये तो विचार और अभिप्रायके मतभेद है। कहाँ करना और क्या करना वह। समाजमें क्या.. दो पत्रिकासे लगे, जो होना होगा वह होगा। अच्छा होगा, ऐसा मानना। गुरुदेवका प्रताप है, विशेष प्रभावना होगी, ऐसा मान लेना। सुलटा अर्थ लेना।
मुमुक्षुः- सबको जैसा लगे वैसा।
समाधानः- जो भी लगे। सब स्वतंत्र हैं, सबके अभिप्रायमें।
मुमुक्षुः- कहीं नुकसान होनेवाला ही नहीं है। पूर्ण भरा है।
समाधानः- स्वयं लबालब भरा है। बाहरमें देव-गुरु-शास्त्रमें स्वयंको कहाँ विवेक करना वह अपने हाथकी बात है। देव-गुरु-शास्त्रके प्रसंगोंमें विवेक कैसे करना, वह