३७६ मुमुक्षुके अपने हाथकी बात है। बाकी आत्मामें तो बाहरसे कुछ नुकसान नहीं होता है। देव-गुरु-शास्त्रके प्रसंगोंमें उसे विवेक आये बिना नहीं रहता। जिसे आत्माकी लगी है, और देव-गुरु-शास्त्रके कैसे प्रसंगमें कैसे वर्तन करना, उसे विवेक आये बिना रहता ही नहीं। .. एक द्रव्य दूसरे द्रव्यको लाभ-नुकसान नहीं करता है, परन्तु उसका विवेक उसे हो जाता है, देव-गुरु-शास्त्रके प्रसंगोंमें।
मुमुक्षुः- .. पत्रिका-लेखन तो हो गया है, ये तो मात्र उस वक्त...
समाधानः- मंगलस्वरूप ही है। देव-गुरु-शास्त्रके सब प्रसंग मंगलरूप है। वह सब आत्माके ध्येयपूर्वक करने योग्य है। सब मंगलरूप है। आत्माका स्वरूप कैसे प्रगट हो, आत्माकी अंतरमें निर्मलता और अंतरकी मंगलिकता कैसे प्रगट हो? शुभभावमें गुरुदेव मंगल और इस पंचमकालमें गुरुदेव वर्तमानमें पधारे। उनका द्रव्य कोई अपूर्व था कि सबको तारनेमें महासमर्थ निमित्त था। गुरुदेव मंगल और सब मंगल ही है। देव-गुरु-शास्त्र मंगल और आत्मा मंगल है, उसकी प्राप्तिके करनेके ध्येयसे वह स कार्य मंगलरूप है। गुरुदेवका प्रभावना उदय महा कल्याणकारी है।
समाधानः- ... आत्मा भिन्न है, ये चैतन्यतत्त्व भिन्न है। ये शरीर भी भन्न है और भीतरमें विकल्प होता है वह भी आत्माका स्वभाव नहीं है। आत्मा चैतन्य तत्त्व है, उसमें ज्ञान, आनन्द, सब उसमें भरा है। बाहरमें कुछ नहीं है। अंतरमें दृष्टि करनेसे प्रगट होता है। अंतरमें जाकर भेदज्ञान करके उसमें लीन होनेसे स्वानुभूति होती है। ऐसे बाहर मात्र क्रियासे नहीं होता। अंतर दृष्टि करनेसे मुक्तिका मार्ग प्रगट होता है। बाहरसे नहीं होता है। जो स्वभाव है उस स्वभावमेंसे प्रगट होता है। बाहरसे नहीं होता है। जिसका जो स्वभाव है उसमेंसे वह (प्रगट होता है)। ज्ञानस्वभाव आत्मामेंसे प्रगट होता है। दर्शन, चारित्र सब आत्मामेंसे होता है। बाहरसे नहीं होता है। ऐसे जो वस्तुका स्वभाव है उसमेंसे वह प्रगट होता है। जो चैतन्यका स्वभाव है उसमें दृष्टि करनेसे प्रगट होता है। स्वानुभूति करना वह मुक्तिका मार्ग है।
भेदज्ञान करनेसे स्वानुभूति (होती है)। गुरुदेवने वही कहते थे। मार्ग एक ही होता है जन्म-मरण टालनेका। विभाव स्वभाव अपना नहीं है। शुभभाव बीचमें आता है, पुण्यबन्ध होता है, स्वर्ग मिलता है। परन्तु शुभभाव भी आत्माका स्वभाव नहीं है। जैसा सिद्ध भगवानका स्वरूप है वैसा आत्माका है। निर्विकल्प तत्त्व है। शुभभाव बीचमें आता है, परन्तु वह तो पुण्यबन्ध होता है। वह आत्माका स्वभाव नहीं है। इसलिये उससे भी भिन्न आत्माको पहचानो, ऐसा गुरुदेव कहते थे। ये पुण्यबन्धका कारण है। ऐसी श्रद्धा करना, ऐसा ज्ञान करना। ऐसा करनेसे स्वानुभूति प्रगट होती है। मुक्तिका मार्ग एक ही होता है, दूसरा नहीं होता है।